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चतुस्त्रिंशः सर्गः
आर्या पञ्चानां संकलिते चतुर्मणो षष्टिरेवमष्टानाम् । नवमिमिश्रितमध्यः पञ्चदशानां च षोडशमिः ॥८॥
अनुष्टुप विंशतिश्च त्रयस्त्रिंशदेकषष्टिश्च पारणाः । जघन्यमध्यमोत्कृष्टसिंह निष्क्रीडितं क्रमात् ।।८।। वज्रसंहननोऽनन्तवीर्य सिंह इवामयः । अणिमादिगुणः सिद्धयेत्फलेनास्य नरोऽचिरात् ॥८॥
हरिणीच्छन्दः प्रतिदधिमुखं चत्वारस्ते निरस्तमनोमलाः प्रतिरतिकरं चाष्टौ यत्र ह्य पोषितवासराः । प्रतिदिशमथो षष्ठं काय तथा जनकान्प्रति व्रतविधिरयं श्रेष्ठो नन्दीश्वरो जिनचक्रिकृत् ॥४॥
ग्रन्थकर्ताने तीनों प्रकारके सिंहनिष्क्रीडित व्रतोंकी संख्या और पारणा गिननेकी एक सरल रीति यह भी बतलायी है कि जघन्यसिंहनिष्क्रोडित व्रतमें एकसे लेकर पांच तकके अंक लिखकर सबको जोड़ ले फिर उसमें चारका गुणा कर दे। जैसे एकसे लेकर पांच तकके अंकोंका जोड़ पन्द्रह होता है उसमें चारका गुणा करनेपर उपवासोंको संख्या साठ आती है । मध्यमसिंहनिष्क्रोडित व्रतमें एकसे लेकर आठ तकके अंक लिखकर सबको जोड दे फिर उसमें चारका गर कर दे और शिखरके नौ अलगसे जोड़ दे। जैसे-एकसे लेकर आठ तकके अंकोंका जोड़ छत्तीस होता है उसमें चारका गुणा करनेपर एक सौ चवालोस आते हैं उसमें शिखरके नौ जोड़ देनेपर उपवासोंकी संख्या एक सौ श्रेपन होती है। उत्कृष्ट सिंहनिष्क्रीडितमें एकसे लेकर पन्द्रह तकके अंक लिखकर उनका जो जोड़ हो उसमें चारका गुणा करे फिर शिखरके सोलह अलगसे जोड़ दे । जैसे एकसे पन्द्रह तकके अंकका जोड़ एक सौ बीस होता है। उसमें चारका गुणा करनेपर चार सौ अस्सी होते हैं। उसमें शिखरके सोलह जोड़ देनेपर उपवासोंकी संख्या चार सौ छ्यानबे होती है ।।८१॥ जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट सिंहनिष्क्रीडित व्रतोंकी पारणाएं क्रमसे बीस, तैंतीस और इकसठ होती हैं ॥८२॥ इस व्रतके फलस्वरूप मनुष्य वज्रवषभनाराच संहननका धारक, अनन्तवीयंसे सम्प सिंहके समान निर्भय और अणिमा आदि गुणोंसे युक्त होता हुआ शीघ्र ही सिद्ध हो जाता है । ८३॥
नन्दीश्वर व्रतविधि-नन्दीश्वर द्वीपको एक-एक दिशामें चार-चार दधिमुख हैं इसलिए
नन्दीश्वर व्रतविधि
यन्त्र
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