________________
चतुरंशः सर्गः शार्दूलविक्रीडितम्
अष्टाविंशतिरिष्टसाधनमतौ चैकादशाङ्गेषु ते
द्वाविष्टौ परिकर्मणोऽष्टसहिताशीतिस्तु सूत्रस्य हि । एकौ चाद्यनुयोग केवल कृतौ द्विःसप्तपूर्वेष्वमी
षट्पञ्चावधिचूलिके श्रुतविधौ द्वौ तौ मन:पर्यये ॥ ९७ ॥ उपजातिः प्रत्येकमष्टावुपवासभेदा निश्शङ्किताद्यष्टगुणव्यपेक्षाः । त्रिदर्शनानामपि ते विधेयास्तपोविधौ दर्शने शुद्धिसंज्ञे ||१८|| शार्दूलविक्रीडितम् द्वावेकः पुनरेक एव हि परे पञ्चेक एकः क्रमात्
पोढ़ा बाह्यतपस्यमी क्रमगताः पुण्योपवासाः पृथक् । मन्तःस्थे दश साधिकाइच नवमिस्त्रिंशदश व्याहृताः
पञ्च द्वौ पुनरेक एव च तपः शुद्धौ विधेया विधौ ॥१९॥ अनुष्टुप
चतुर्दशस्वहिंसाथं जीवस्थानेषु माविताः । त्रियोगनव कोटिहना ते षडविंशं शतं स्फुटम् ॥१००॥ अर्धी भोजनका परिमाण ऊपर लिखे अनुसार ही समझना चाहिए। ये आचाम्ल वर्धमान तपकी विधियाँ क्रमसे करनी चाहिए ।। ९५-९६ ।।
श्रतविधि - श्रुतविधि उपवासमें मतिज्ञानके अट्ठाईस, ग्यारह अंगोंके ग्यारह, परिकर्मके दो, सूत्र के अठासी, प्रथमानुयोग और केवलज्ञानके एक-एक, चौदह पूर्वोके चौदह, अवधिज्ञानके छह, चूलिकाके पाँच और मन:पर्ययज्ञानके दो इस प्रकार एक सौ अट्ठावन उपवास करने पड़ते हैं । एक-एक उपवासके बाद एक-एक पारणा होती है इसलिए यह व्रत तीन सौ सोलह दिनोंमें पूर्ण होता है ॥९७॥
Jain Education International
४३९
दर्शनशुद्धि विधि - दर्शनविशुद्धि नामक तपकी विधिमें औपशमिक, क्षायोपशमिक और क्षायिक इन तीन सम्यग्दर्शनोंके निःशंकित आदि आठ-आठ अंगोंकी अपेक्षा चोबीस उपवास होते हैं। एक-एक उपवासके बाद एक-एक पारणा होती है । इस तरह यह व्रत अड़तालीस दिनमें समाप्त होता है ॥ ९८ ॥
तपःशुद्धि विधि - बाह्य और आभ्यन्तरके भेदसे तपके दो भेद हैं । उनमें बाह्य तपके अनशन, ऊनोदर, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश ये छह भेद हैं और आभ्यन्तर तपके प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और कायोत्सगं ये छह भेद हैं । इनमें अनशनादि बाह्य तपोंके क्रमसे दो, एक, एक, पाँच, एक और एक इस प्रकार ग्यारह पवित्र उपवास होते हैं और प्रायश्चित्त आदि छह अन्तरंग तपोंके क्रमसे उन्नीस, तीस, दश, पांच, दो और एक इस प्रकार सड़सठ उपवास होते हैं। दोनों भेदोंके मिलाकर अठहत्तर उपवास होते हैं। ये सब उपवास पृथक्-पृथक् होते हैं अर्थात् एक उपवासके बाद एक पारणा होती है ॥९९॥ चारित्रशुद्धि विधि-व महाव्रत, तीन गुप्ति, पाँच समिति के भेदसे चारित्रके तेरह भेद हैं | चारित्रशुद्धि विधि में इन सबकी शुद्धि के लिए पृथक्-पृथक् उपवास करनेकी प्रेरणा दी गयी है । १. १५८ उपवासस्थानानि । २. २४ उपवासस्थानानि । ३. अहिंसा व्रतोपवासाः १४ x ९ = १२६ । * कुछ लोग अठहत्तर उपवासोंके बारह स्थान मानते हैं अर्थात् पारणाएं केवल बारह ही होती हैं। ऐसा अर्थ करते हैं परन्तु इस अर्थ में पृथक् शब्द निरर्थक जाता है और आभ्यन्तर तपोंमें उन्नीसके बाद एक पारणा तथा उसके बाद तीस उपवास लगातार करना अत्यन्त कष्टसाध्य है ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org