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हरिवंशपुराणे यत्र षष्ठोपवासाः स्युश्चत्वारिंशत्तथाष्ट च । द्विकावलीयमुद्गीता लोकद्विकसुखावली ॥१८॥ एकाचा यत्र पञ्चान्ता एकान्ताश्चतुरादिकाः । मुक्ताबलीयमाख्याता ख्याता मुक्तावली यथा ।।६९॥ नान्तरीयकमेतस्या लोकालंकरणं फलम् । मुकालयपरिप्राप्तिरन्ते चास्यन्तिकं फलम् ॥७॥ पञ्चान्ता यत्र चैकाद्याः पञ्चायेकान्तिका पुनः । रत्नावलीयमस्याश्च फलं रत्नावलीगुणाः ॥७॥
द्विकावलीविधि-जिसमें अड़तालीस वेला और अड़तालीस पारणाएं हों वह द्विकावलीविधि कही गयी है । यह दोनों लोकोंमें सुखको देनेवाली है। इसमें एक वेलाके बाद एक पारणा होती है । यह व्रत छयानबे दिनमें पूर्ण होता है ।।६८।।
३ द्विकावलीयन्त्र - २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २ २
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मुक्तावली विधि-जिसमें एकसे लेकर पांच तक और चारसे लेकर एक तक बिन्दुए हों वह मुक्तावली विधि है। यह मोतियोंकी मालाके समान प्रसिद्ध है। इसमें जितनी बिन्दुएं हैं उतने उपवास और जितने स्थान हैं उतनी पारणाएं होती हैं। इस प्रकार इस व्रतमें पचीस उपवास और नो पारणाएँ होती हैं। उनका क्रम यह है-एक उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा, पांच उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, और एक उपवास एक पारणा। यह व्रत चौंतीस दिन में पूर्ण होता है। इसका साक्षात् फल यह है कि इस व्रतको करते ही मनुष्य समस्त लोगोंका अलंकारस्वरूप श्रेष्ठ हो जाता है और अन्त में सिद्धालयकी प्राप्तिस्वरूप आत्यन्तिक फलको प्राप्ति होती है ॥६९-७०||
रत्नावली विधि-जिसमें एकसे लेकर पांच तक और पांचसे लेकर एक तक बिन्दुएं हों वह रत्नावली विधि है। इसका फल रत्नावलीके समान अनेक गुणोंकी प्राप्ति होना है। इसमें जितनी बिन्दुएं हों उतने उपवास और जितने स्थान हों उतनी पारणाएं जानना चाहिए। उनका क्रम यह है-एक उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा, पाँच उपवास एक पारणा, पाँच उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा और एक उपवास एक पारणा। इस प्रकार इसमें तोस उपवास और दस पारणाएं होती हैं। यह व्रत चालीस दिनमें पूर्ण होता है ॥७॥ मुक्तावलीविधियन्त्र -
रत्नावलीविधियन्त्र -
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१. दिनद्वयोपवासाः।
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