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चतुर्विंशः सर्गः क्षीरसावित्वमक्षीणमहानसगुणादिकाः । लब्धयोऽधिरन्ते च फलं निर्वाणमस्य च ॥६५॥ पञ्चादयो द्विपर्यन्ताः पञ्चान्ता द्वयादयः परे । विधिरजमध्योऽस्य फलं चानन्तरं श्रतम् ॥१६॥ 'चतुर्थकानि यत्र स्युश्चतुर्विशतिरेव सा । एकावली फलं तस्याः सुखमेकावलीस्थितम् ॥१७॥
व्रतमें तेईस उपवास और सात पारणाएं होती हैं तथा तीस दिनमें समाप्त होता है। क्षीरस्रावित्व, अक्षीणमहानस आदि ऋद्धियाँ, अवधिज्ञान और अन्तमें मोक्ष प्राप्त होना इस व्रतका फल है ।।६४-६५॥ वज्रमध्यविधियन्त्र -
मृदङ्गमध्यविधियन्त्र - ० ० ० ० ० ० ० ० ०
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००००० मुरजमध्यविधि-जिसमें पांचसे लेकर दो तक, दोसे लेकर पांच तक बिन्दुएं हों वह मुरजमध्यविधि कहलाती है। इसमें जितनी बिन्दुएँ हों उतने उपवास और जितने स्थान हों उतनी पारणाएं समझनी चाहिए । इनका क्रम यह है कि पांच उपवास एक पारणा, चार उपवा पारणा, तीन उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, दो उपवास एक पारणा, तीन उपवास एक पारणा, चार उपवास एक पारणा और पांच उपवास एक पारणा है। इस प्रकार इसमें अट्ठाईस उपवास और आठ पारणाएँ हैं तथा छत्तीस दिनमें समाप्त होता है। इसका फल मृदंगमध्यविधिके समान है ।।६६||
मुरजमध्यविषियन्त्र -
० ० ० ० ० एकावलीविधि-जिसमें चौबीस उपवास और चौबीस पारणा हों वह एकावलीविधि है। इसमें एक उपवास तथा एक पारणाके क्रमसे चौबीस उपवास और चौबीस पारणाएँ होती हैं। यह व्रत अड़तालीस दिनमें समाप्त होता है तथा अखण्ड सुखको प्राप्ति होना इसका फल है ।।६७॥
एकावलीयन्त्र -
१. विधिरन्ते म.। २. उपवासाः ।
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