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त्रयस्त्रिशः सर्गः
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श्रुत्वा कंसोऽपि शङ्कावानाशु गत्वा पदानतः । वसुदेवं वरं वने तीव्रधीः सत्यवाग्व्रतम् ॥३८॥ स्वामिन् ! वरप्रसादो मे दातव्यो भवता ध्रुवम् । प्रसूतिसमये वासो देवक्या मद्गृहेऽस्त्विति ॥३९॥ सोऽप्यविज्ञातवृत्तान्तो दत्तवान् वरमस्तधीः । नापायः शक्यते कश्चिस्सोदरस्य गृहे स्वसुः ॥४०॥ पश्चाद्विदितवृत्तान्तः पश्चात्तापहतान्तरः । सहकारवनान्तस्थमतिमुक्तकमासवान् ॥४॥ देवक्या सह वन्दित्वा चारणश्रमणं स तम् । दत्ताशिषमुपासृत्य पप्रच्छ मनसि स्थितम् ॥४२॥ भगवन्नन कंसोऽयं कृतेनान्यत्र जन्मनि । पितुरेव रिपुर्जातः कर्मणा केन दुर्मतिः ॥१३॥ कथं वा मम पुत्रोऽस्य कंसस्य मविता विभो । हिंसकः पापचित्तस्य वद वाञ्छामि वेदितुम् ॥४४॥ इति पृष्टो मुनिः प्राह स दीप्तावधिलोचनः । संशयच्छेदिनी यस्मात्प्रवृत्तिर्दिव्यचक्षुषः ॥४५॥ आकर्णयस्व देवानांप्रिय ! सर्वजनप्रियः । कथयामि यथाप्रश्न वस्तु जिज्ञासितं नृप ॥४६॥ मथुरायामिहैवासीदुनसेने तु राजनि । प्राक् पञ्चाग्नितपोनिष्ठो वशिष्ठो नाम तापसः ॥४७॥ एकपादस्थितश्चासावूर्वबाहुबूंहजटः । यमुनायास्तटे सोऽज्ञः तपस्तपति तापसः ॥४८॥
जमाकर उसने सब समाचार कह सुनाया ॥३७।। स्त्रीके मुखसे यह समाचार सुनकर कंसको भी शंका हो गयी। वह तीक्ष्ण बुद्धिका धारक तो था ही इसलिए शीघ्र ही उपाय सोचकर सत्यवादी वसुदेवके पास गया और चरणोंमें नम्रीभूत होकर वर मांगने लगा ॥३८|| उसने कहा कि हे स्वामिन् ! मेरा जो वर आपके पास धरोहर है उसे दे दीजिए और वह वर यही चाहता हूँ कि 'प्रसूतिके समय देवकीका निवास मेरे हो घरमें रहा करे' ॥३९।। वसुदेवको इस वृत्तान्तका कुछ भी ज्ञान नहीं था इसलिए उन्होंने निर्बुद्धि होकर कंसके लिए वह वर दे दिया। भाईके घर बहनको कोई आपत्ति आ सकती है यह शंका भी तो नहीं की जा सकती? ॥४०॥ पीछे जब उन्हें इस वृत्तान्तका पता चला तो उनका हृदय पश्चात्तापसे बहुत दुःखी हुआ। वे उसी समय आम्रवनके मध्यमें स्थित चारण ऋद्धिधारी अतिमुक्तक मुनिराजके पास गये और देवकीके साथ प्रणाम कर समीपमें बैठ गये। मुनिराजने दोनोंको आशीर्वाद दिया। तदनन्तर वसुदेवने उनसे अपने हृदयमें स्थित निम्नांकित प्रश्न पूछा ॥४१-४२।।
हे भगवन् ! कंसने अन्य जन्ममें ऐसा कौन-सा कम किया कि जिससे वह दुर्बुद्धि अपने पिताका ही शत्रु हुआ। इसी प्रकार हे नाथ ! मेरा पुत्र इस पापी कंसका विघात करनेवाला कैसे होगा ?—यह मैं जानना चाहता हूँ सो कृपा कर कहिए ॥४३॥ अतिमुक्तक मुनिराज देदीप्यमान अवधिज्ञानरूपी नेत्रके धारक थे और अवधिज्ञानरूपी दिव्य नेत्रके धारक पुरुषोंकी वाणी चूंकि संशयको नष्ट करनेवाली होती है इसलिए कुमार वसुदेवके पूछनेपर मुनिराज कहने लगे ॥४४॥
हे देवोंके प्रिय ! राजन् ! सुन, तेरा प्रश्न सब लोगोंके लिए प्रिय है इसलिए मैं तेरे प्रश्नके अनुसार तेरी जिज्ञासित वस्तुको कहता हूँ॥४५।। इसी मथुरा नगरीमें जब राजा उग्रसेन राज्य करता था तब पहले पंचाग्नि तप तपनेवाला एक वशिष्ठ नामक तापस रहता था ॥४६॥ वह अज्ञानी यमुना नदीके किनारे तप तपता था, एक पावसे खड़ा रहता था, ऊपरको ओर भुजा उठाये रहता था और बड़ी-बड़ी जटाओंको धारण करता था ॥४७॥ वहांपर लोगोंको पनिहारिनें पानीके लिए आती थीं। एक दिन जिनदास सेठकी प्रियंगुलतिका नामकी पनिहारिन भी वहाँ आयो। हितको बुद्धि रखनेवाली अन्य पनिहारिनोंने प्रियंगुलतिकासे कहा कि हे प्रियंगुलतिके ! १. अत्र क. ग. ङ. पुस्तकेषु एवंविधः पाठः-'पश्चाद्विदितवृत्तान्तः पश्चात्तापहतान्तरः। देवकी रुदमानासो निजनाथं जगाद सा ॥४१॥ बहवो नन्दनास्तेऽस्मिन् किं करिष्याम्यहं पुनः। तच्छ त्वा स बनान्तस्थमतिमुक्तकमाप्तवान् ॥४२॥'
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