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त्रयस्त्रशः सर्गः
सास्य निर्बन्धतो वाचा दुःखगद्गदया गदीत् । विपाठ्य जठरं पातुं रुधिरं तव मे स्पृहा ॥ ८७ ॥ सचिवोपायतस्तस्या दौर्हृदे विहिते ततः । असूत तनयं देवी भ्रकुटीकुटिलाननम् ॥ ८८ ॥ गर्भप्रभृतिरौद्रं तं कंस मंजूषिका कृतम् । देव्यमोचयदेकान्ते प्रवाहे यामुने भयात् ॥ ८९ ॥ अवीवृदसौ लब्ध्वा कौशाम्ब्यां सीधुकारिणी । कृतकंसामिधं शेषं तवापि विदितं नृप ॥ ९० ॥ निदानदोषदुष्टोऽयं कृतवान् पितृनिग्रहम् । उग्रसेननृपं चापि मोचयिष्यति ते सुतः ॥९१॥ नृपोक्तः कंससंबन्धः पितृबन्धनिबन्धनः । वच्मि ते पुत्रसंबन्धं शृणु संधाय मानसम् ॥ ९२ ॥ देवक्याः सप्तमः सूनुः शङ्खचक्रगदासिभृत् । निहत्य कंसपूर्वारीन् निःशेषां भोक्ष्यति क्षितिम् ॥ ९३ ॥ चरमोत्तम देहास्तु शेषाः षडपि सूनवः । न तेषामेपमृत्युः स्यादाधिव्याधिमतस्त्यज ॥९४॥ रामभद्रसमेतानां तेषां जन्मान्तराणि ते । भणामि शृणु सस्त्रीकश्चित्तप्रीतिकराण्यहम् ॥९५॥ शूरसेननृपे पाति मथुरां मानुरित्यभूत् । इभ्यो द्वादशकोटीशो यमुना तस्य मासिनी ॥ ९६ ॥ सुभानुर्मानुकीर्तिश्च मानुषेणस्तथा परः । शूरश्च सूरदेवश्च शूरदत्तस्तथैव च ॥ ९७ ॥ शूरसेनश्च सप्तैते यमुनाभानुसूनवः । अभिरामाः स्वभावेन तेऽन्योऽन्यानुगतास्तदा ॥९८॥ कालिन्दी तिलका कान्ता श्रीकान्ता सुन्दरी द्युतिः । चन्द्रकान्ता च तत्कान्ता क्रमेण कुलबालिकाः॥ ९९ ॥ मनुः प्राजदन्तेऽसौ गुरोरभयनन्दिनः । तथा यमुनदत्तापि जिनदत्तार्थिकान्तिके ॥१००॥
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और न विचार करने योग्य है । रानीके इस प्रकार कहनेपर राजाने कहा कि वह दोहला तुम्हें अवश्य कहना चाहिए || ८६ ।। राजाका हठ देख उसने दुःखसे गद्गद वाणी द्वारा कहा कि हे नाथ ! मेरी इच्छा है कि मैं आपका पेट फाड़कर आपका रुधिर पीऊँ ॥ ८७॥ तदनन्तर मन्त्रियोंके उपायसे उसका दोहला पूर्ण किया गया। नौमाह बाद रानी पद्मावतीने ऐसा पुत्र उत्पन्न किया जिसका मुख भौंहोंसे अत्यन्त कुटिल था ॥८८॥ चूँकि वह बालक गर्भसे हो अत्यन्त रौद्र था इसलिए रानी पद्मावतीने भयसे उसे •काँसको मंजूषामें बन्द कर एकान्त में यमुनाके प्रवाहमें छुड़वा दिया ॥ ८९ ॥ वह मंजूषा बहती - बहती कोशाम्बी नगरी पहुँची । वहाँ एक कलारिनने उसे पाकर पुत्रका कंस नाम रखा तथा उसका पालन-पोषण किया । हे राजन् ! इसके आगेका सब समाचार तुम्हें विदित ही है ॥९०॥ निदानके दोषसे दूषित होकर इसने पिताका निग्रह किया है । आगे चलकर तुम्हारा पुत्र उसे मारेगा और उसके पिता राजा उग्रसेनको भी बन्धन से छुड़ावेगा ॥ ९१ ॥ हे राजन् ! कंसने अपने पिताको बन्धनमें क्यों डाला इसका कारण बतलानेवाला कंसका वृत्तान्त कहा। अब तेरे पुत्रोंका वृत्तान्त कहता हूँ सो मनको स्थिर कर सुन ॥ ९२ ॥
देवकीका सातवां पुत्र शंख, चक्र, गदा तथा खड्गको धारण करनेवाला होगा और वह कंस आदि शत्रुओं को मारकर समस्त पृथिवीका पालन करेगा ॥९३॥ शेष छहों पुत्र चरम-शरीरी होंगे । उनको अपमृत्यु नहीं हो सकेगी, अतः चिन्तारूपी व्याधिका त्याग करो || ९४ || मैं रामभद्र (बलदेव) सहित उन सबके पूर्वभव तुम्हें कहता हूँ सो अपनी स्त्रीके साथ श्रवण करो । अवश्य ही उन सबके पूर्वभव तेरे चित्तको प्रीति करनेवाले होंगे ॥९५॥
जब राजा शूरसेन मथुरापुरीकी रक्षा करते थे तब यहाँ बारह करोड़ मुद्राओंका अधिपति भानु नामका सेठ रहता था । उसकी स्त्रीका नाम यमुना था || ९६ || उन दोनोंके सुभानु, भानुकीर्ति, भानुषेण, शूर, सूरदेव, शूरदत्त और शूरसेन ये सात पुत्र उत्पन्न हुए। ये सातों भाई अत्यन्त सुन्दर तथा स्वभावसे ही एक दूसरेके अनुगामी थे ।।९७-९८ ।। उन सातों पुत्रोंकी क्रमसे कालिन्दी, तिलका, कान्ता, श्रीकान्ता, सुन्दरी, द्युति और चन्द्रकान्ता ये सात स्त्रियाँ थीं जो उच्च कुलोंकी कन्याएँ थीं ||१९|| कदाचित् भानु सेठने अभयनन्दी गुरुके समीप और उसकी स्त्री यमुनाने १. यमुनाया इदमिति यामुनं तस्मिन् यामुने । २. तेषामपि म. ।
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