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हरिवंशपुराणे
तापनयोगं तं मुदा पर्वतमस्तके | सप्तैत्योचुस्तपोवश्याः किं कुर्मस्तेऽथ देवताः ॥ ७६ ॥ कर्तव्यं मम नास्तीति स निषिध्य तपोधनः । व्यसर्जयद्धि तद्वश्या गताश्च वनदेवताः ॥७७॥ मासोपवासिने तस्मै निःस्पृहाय तपस्विने । पारणास्ववदानाय स्पृहयन्त्यखिलाः प्रजाः ॥७८॥ उग्रसेनोऽन्यदा दातु पारणां तमयाचत । न्यवारयत्तदा दातृन् मथुरावासिनोऽखिलान् ॥७९॥ पारणासु नृपस्तस्य विसस्मार तिसृष्वपि । दूताग्निद्विरदक्षो भव्यासंगेन प्रमादवान् ॥८०॥ अटित्वा मधुरां सर्वामलाभे श्रमपीडितः । श्रमणोऽन्ते विशश्राम नगरद्वारि सोऽन्यदा ॥ ८१ ॥
तं दृष्ट्वा 'केनचित्प्रोक्तं हा कष्टं भूभृता कृतम् । मिक्षां स्वयं न दत्तोऽस्मै परानपि निषिद्धवान् ॥८२॥ तदाकर्ण्य रुषा तेन ध्यातास्ताः पूर्वदेवताः । कार्यं कुर्यात मेऽन्यस्मिन् जन्मनीति विनिर्ययौ ॥ ८३ ॥ निकारायोग्रसेनस्य प्रकृतोप्रनिदानतः । स मिथ्यात्वमितो मृत्वा पद्मावत्युदरेऽवसत् ॥ ८४ ॥ तस्मिन् गर्मस्थिते देवीमेकान्ते कृशविग्रहाम् । नृपः पप्रच्छ तां कान्ते दौहृद्यं ते किमित्यसौ ॥ ८५ ॥ नाथावाच्यमचिन्त्यं च गर्भदोषेण चिन्तितम् । इत्युक्ते स स्वयावश्यं वाच्यमित्यवदन्नृपः ॥ ८६ ॥
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तथा प्रजाने बड़ी प्रतिष्ठाके साथ उनकी पूजा की ||७५ || एक समय वे बड़ी प्रसन्नता से पर्वतके मस्तकपर आतापन योग धारण कर विराजमान थे कि उनके तपसे वशीभूत हुईं सात देवियाँ पास आकर कहने लगीं कि हम लोग आपका क्या कार्यं करें ? ||७६ || तपोधन वशिष्ठ मुनिने यह कहकर उन देवियों को वापस कर दिया कि मेरा कोई काम नहीं है । अन्तमें उनके आधीन हुईं वे वन-देवियाँ चलो गयीं ॥७७॥ आहारकी इच्छासे रहित वशिष्ठ मुनि एक मासके उपवासका नियम लेकर तपस्या कर रहे थे, इसलिए समस्त प्रजा पारणाओंके समय उन्हें आहार देना चाहती थी || ७८ || परन्तु राजा उग्रसेनने किसी समय नगरवासियोंसे यह याचना की कि मासोपवासी मुनिराज के लिए पारणाओंके समय में ही आहार दूँगा और इसी भावनासे उसने मथुरामें रहनेवाले सब दाताओंको आहार देनेसे रोक दिया ॥७९॥ मुनिराज एक-एक मास बाद तीन बार पारणाओंके लिए आये परन्तु तीनों बार राजा प्रमादी बन आहार देना भूल गया। पहली पारणाके समय जरासन्धका दूत आया था सो उसकी व्यवस्था में निमग्न हो आहार देना भूल गया। दूसरी पारणाके समय आग लग गयी सो उसको व्यवस्था में संलग्न होनेसे प्रमादी हो गया और तीसरी पारणा के समय नगर में हाथीने क्षोभ मचा दिया इसलिए उसके व्यासंगसे प्रमादी हो आहार देना भूल गया ||८०|| मुनि आहार के लिए समस्त मथुरा नगरी में घूमे परन्तु कहीं आहार प्राप्त नहीं हुआ । अन्तमें श्रमसे पीड़ित हो नगरके द्वारमें विश्राम करने लगे ॥ ८१ ॥ | उन्हें देख किसी नगरवासीने कहा कि हाय बड़े खेदकी बात राजाने कर रक्खी है-इन मुनिराजके लिए वह स्वयं आहार देता नहीं है तथा दूसरोंको मना कर रखा है ॥८२॥ यह सुनकर मुनिराजको क्रोध आ गया। उन्होंने उसी समय पहले आयी हुईं देवियोंका स्मरण किया । स्मरण करते ही देवियाँ आ गयीं। उन्हें देख मुनिने कहा कि 'आप लोग अन्य जन्ममें मेरा काम करें ।' मुनिकी आज्ञा स्वीकृत कर देवियाँ वापस चली गयीं और मुनि वनको ओर प्रस्थान कर गये॥ ८३ ॥ राजा उग्रसेनका अपमान करने के लिए वशिष्ठ मुनिने यह उग्र निदान बांध लिया कि में उग्रसेनका पुत्र होकर इसका बदला लूँ । निदान के कारण वे मुनि पदसे भ्रष्ट हो मिथ्यात्व गुणस्थान में आ गये और उसी समय मरकर राजा उग्रसेनकी रानी पद्मावतीके उदर में निवास करने लगे ॥ ८४ ॥ जब कंसका जीव पद्मावतीके गर्भमें था तब पद्मावतीका शरीर एकदम दुर्बल हो गया। एक दिन राजाने उससे एकान्तमें पूछा कि कान्ते ! तुम्हारा दोहला क्या है ? जिसके कारण तुम सूखकर काँटा हुई जा पद्मावतीने कहा कि हे नाथ ! गर्भके दोषसे मुझे जो दोहला हुआ है वह न तो
रही हो ॥८५॥ कहने योग्य है
१. विवृद्धस्या ग. ( ? ) । २. प्रोक्तो म. ।
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