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त्रयस्त्रिशः सर्गः
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सोऽयं यक्षलिको नाम्ना निर्नामा मुनिमारणात् । निर्दयत्वाच्च पूर्वत्र मात्रा विद्वेषतां गतः ॥१६॥ श्रुस्वा तद्विशतक्षत्रै राजा संसारभीरुधीः । देवनन्दे श्रियं न्यस्य तस्यान्ते दीक्षितो मुनेः ॥१६३।। राजपुत्राश्च ते सर्वे श्रेष्ठी शङ्खश्च दीक्षितः । सुनिर्मलं तपश्चक्रुर्मवचक्रनिवृत्तये ॥१६॥ राज्ञी चापि सधात्रीका बन्धुमत्या सहाश्रिता । प्रव्रज्यां सुव्रतार्यान्ते सुव्रतव्रातभूषिताम् ॥१६५॥ कुर्वनिर्नामकस्तीव्र सिंहनिःक्रीडितं तपः । निदानमकरोदन्यजनने जनकान्तताम् ॥१६६॥ धात्री मानुष्यकं प्राप्ता पुरे भद्रिलसाह्वये । सुदृष्टिश्रेष्टिनो भार्या वर्तते ह्यलकाभिधा ॥१६७॥ गङ्गाद्या देवकीगमें षडपि द्वन्द्वमाविनः । उत्पत्स्यन्ते क्रमणैव विक्रमैकमहार्णवाः ॥१६॥ हारिणा स्वर्गिणा धात्री सुत्रामादेशकारिणा । प्राप्स्यन्ते जातिमात्रेण तत्राप्स्यन्ति च यौवनम् ॥१६९॥ नृपदत्तोऽग्रजस्तेषां देवपालस्तथापरः । तृतीयोऽनीकदत्तस्तु तुरीयोऽनीकपालकः ॥१७॥ 'शत्रुघ्नो जितशत्रुस्ताविति नामभिरीरिताः । रूपेण सदृशाः सर्वे भविष्यन्ति तवारमजाः ॥१७॥ हरिवंशशशाङ्कस्य जिनस्य त्रिजगद्गुरोः। शिष्यतां ते करिष्यन्ति गमिष्यन्ति च निवृतिम् ॥१७२।। आगत्य देवकीगर्भे निर्नामा सप्तमः सुतः । उत्पद्यं भविता वीरो वासुदेवोऽत्र मारते ॥१७३।।
शार्दूलविक्रीडितम् श्रुत्वा कंसमवान्तरं तदुदयं संचिन्त्य पुण्योदयात्
सोपेक्षान्तरमित्रतामुपगतोऽप्यत्राभवत्कालवित् । नामकी पुत्री हुई ॥१६१॥ और यक्षलिक निर्नामक हुआ, इस यक्षलिकने रसोइयाकी पर्यायमें मुनिराजको मारा था तथा सपिणीके साथ अत्यन्त निर्दयताका व्यवहार किया था इसलिए माता नन्दयशाके साथ विद्वेषको प्राप्त हुआ है ॥१६२॥ यह सुनकर राजा गंगदेव संसारसे भयभीत हो गया और अपने देवनन्द नामक पुत्रको राज्यलक्ष्मी सौंपकर दो सौ राजाओंके साथ उन्हीं मनिके समीप उसने दीक्षा धारण कर ली।।१३।। समस्त राजपूत्रों और श्रेष्ठिपुत्र शंखने भी दीक्षा ले ली तथा सब, संसारचक्रसे निवृत्त होनेके लिए निर्मल तप करने लगे ॥१६४॥ रानी नन्दयशाने रेवती धाय और बन्धुमती सेठानीके साथ सुव्रता नामक आर्यिकाके समीप उत्तम व्रतोंके समूहसे सुशोभित दीक्षा धारण कर ली ।।१६५॥ निर्नामकने मुनि होकर सिंहनिष्क्रीडित नामक कठिन तप किया था और यह निदान बांध लिया कि मैं जन्मान्तरमें नारायण होऊं ॥१६६|| रेवती धाय मनुष्य पर्याय प्राप्त कर भद्रिलसा नगरमें सुदृष्टि नामक सेठको अलका नामकी स्त्री हुई है ।।१६७|| गंग आदि छह पुत्रोंके जीव युगलिया रूपसे देवकीके गर्भ में क्रम-क्रमसे उत्पन्न होंगे और वे पराक्रमके महासागर-अत्यन्त पराक्रमी होंगे ||१६८|| इन्द्रका आज्ञाकारी हारी नामका देव उन पुत्रोंको उत्पन्न होते ही धायके जीव अलकाके पास पहुंचा देगा; वहीं वे यौवनको प्राप्त करेंगे ॥१६९।। उन पुत्रोंमें बड़ा पुत्र नृपदत्त, दूसरा देवपाल, तीसरा अनीकदत्त, चौथा अनीकपालक, पांचवां शत्रुघ्न और छठा जितशत्रु नामसे प्रसिद्ध होगा। तुम्हारे ये सभी पुत्र रूपसे अत्यन्त सदृश होंगे अर्थात् समान रूपके धारक होंगे ॥१७०-१७१।। ये सभी कुमार हरिवंशके चन्द्रमा, तीन जगत्के गुरु श्री नेमिनाथ भगवान्को शिष्यताको प्राप्त कर मोक्ष जावेंगे ॥१७२॥ निर्नामकका जीव देवकीके गर्भ में आकर सातवाँ पुत्र होगा। वह अत्यन्त वीर होगा तथा इस भरत क्षेत्रमें नौवाँ नारायण होगा ॥१७३।। जिनमतको लक्ष्मीकी प्रशंसा करनेवाले कालज्ञ वसुदेव, मुनिराजके मुखसे कंसके भवान्तर तथा पुण्यके उदयसे प्राप्त हुए उसके अभ्युदयको सुनकर उसके साथ उपेक्षापूर्ण मित्रताको प्राप्त हुए अर्थात् उन्होंने मित्रता १. जनानां मध्ये कान्ततां मनोज्ञताम् (क. टि. ) जनकान्तिकम् म., ग., ङ., ख.। २. क्रमेणैक-म. । ३. यातमात्रेण म., क.। ४. शत्रुघ्न-म.। ५. देवकीसुतः म. ।
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