________________
४१५
त्रयस्त्रिंशः सर्गः स्वयंवरमगुस्तस्या विश्व विद्याधरास्मजाः । तत्रारममैथुनं वव्रे कन्यासी हरिवाहनम् ॥१३६।। वयं स्वयंवरव्याजात् स्वविवाहाय मायया । समाहृता इति क्रुद्धास्तपित्रे गगनायनाः ।।१३७॥ परस्परवधं चक्रुस्ते तस्कन्यार्थिनस्ततः । चित्रचूलसुता निन्धं दृष्ट्वा क्षत्रवधं तकम् ॥१३॥ पापहेतुं विनिन्द्याक्षविषयान् विषमानमी । भूतानन्दजिनस्यान्ते प्रव्रज्या ते प्रपेदिरे ॥१३९॥ सप्ताप्याराध्य माहेन्द्रे सप्ताब्ध्युपमजीविताः । सामानिकसुरा भूत्वा सुखं बुभुजिरे चिरम् ।।१४०॥ ततश्च्युत्वाग्रजोऽत्रैव भारते हस्तिनाह्वये । नगरे श्रेष्ठिनः शङ्खो बन्धुमत्यामभूत्सुतः ॥१४१॥ इतरे गङ्गदेवस्य तत्पुरेशस्य भूपतेः । नन्दना नन्दयशसो द्वन्द्वभूतास्तु जज्ञिरे ॥१४२॥ गङ्गश्च गङ्गदत्तश्च गङ्गरक्षितकस्तथा । नन्दश्चापि सुनन्दश्च नन्दिषेणश्च सुन्दरः ॥१४॥ सप्तमस्तु सुतो देव्या गर्भ दौर्भाग्यदग्धया । त्यक्तः संवर्धितश्चासौ धाश्या रेवतिकाख्यया ॥१४४॥ शङ्को यातोऽन्यदादाय तं निर्नामकनामकम् । हृद्यं मनोहरोद्यानं पौरलोकसमाकुलम् ॥१४५॥ भुञ्जानानाह राजन्याँस्तत्र राजसुतैः सह । भोक्तुं नाहूयते कस्मादयं निर्नामकोऽनुजः ॥१४६॥ आहूतस्तैरसो भोक्तुमासीनः सोदरैः सह । राज्या चागतया मात्रा कोपापादेन ताडितः ॥१४॥ धिग मधेतोरयं दुःख निर्नामा प्राप्तवानिति । दुःखी शङ्कस्तमादाय गत्वा राजादिमिर्वने ॥१४८॥ थी ॥१३५।। धनश्रीका किसी समय स्वयंवर किया गया, स्वयंवरमें समस्त विद्याधरोंके पत्र गये परन्तु कन्याने उनमें अपने पिताके भानजे हरिवाहनको वरा ॥१३६।। 'जब इसे अपने सम्बन्धीके साथ ही विवाह करना था तो स्वयंवरके बहाने छलपूर्वक हम लोगोंको क्यों बुलाया'-यह कहते हए अन्य विद्याधर कन्याके पितापर कद्ध हो गये ॥१३७॥ तदनन्तर उस कन्याकी इच्छा रखते
विद्याधर परस्पर एक-दुसरेका वध करने लगे। राजा चित्रचलके पूत्र भी स्वयंवर में गये थे। इस निन्दनीय क्षत्रिय-वधको देखकर वे विचार करने लगे कि अहो ! ये इन्द्रियोंके विषम विषय हो पापके कारण हैं। इस प्रकार इन्द्रियोंके विषयोंकी निन्दा कर भूतानन्द जिनराजके समीप दीक्षित हो गये ॥१३८-१३९॥ सातों मुनिराज अन्तमें समाधि धारण कर माहेन्द्र स्वर्गमें सात सागरको आयुके धारक सामानिक जातिके देव हुए और वहांको विभूतिसे चिरकाल तक सुख भोगते रहे ॥१४०॥
___तदनन्तर वहाँसे च्युत होकर बड़े भाईका जीव इसी भरतक्षेत्रके हस्तिनापुर नगरमें किसी सेठको बन्धुमती स्त्रीसे शंख नामका पुत्र हुआ ॥१४१॥ शेष छह भाइयोंके जीव इसी नगरके राजा गंगदेवकी नन्दयशा रानीसे तीन युगलके रूपमें गंग, गंगदत्त, गंगरक्षित, नन्द, सुनन्द और नन्दिषेण नामके छह सुन्दर पुत्र हुए ॥१४२-१४३।। रानी नन्दयशाके गर्भ में जब सातवां पुत्र आया तब उसके अत्यन्त दुर्भाग्यका उदय आ गया। उससे दुखी होकर उससे उत्पन्न होनेपर उस पुत्रको छोड़ दिया, निदान, रेवती नामक धायने पालन-पोषण कर उसे बड़ा किया ॥१४४॥ रानी नन्दयशाके इस त्याज्य पुत्रका नाम निर्नामक था। यह निर्नामक, श्रेष्ठिपुत्र शंखको बड़ा प्रिय था। एक दिन शंख, निर्नामकको साथ लेकर नागरिक मनुष्योंसे भरे हुए मनोहर उद्यानमें गया ।।१४५।। वहाँ राजा गंगदेवके छहों पुत्र एक साथ भोजन कर रहे थे। उन्हें देख शंख ने कहा कि यह निर्नामक भी तो तुम्हारा छोटा भाई है, इसे भोजन करनेके लिए क्यों नहीं बुलाते ?॥१४६।। शंखकी बात सुन राजपुत्रोंने निर्नामकको बुला लिया और वह भाइयोंके साथ भोजन करनेके लिए बैठ गया। उसी समय उसकी माता रानी नन्दयशा कहींसे आ गयी और उसने क्रोधसे आगबबूला हो उसे लात मार दी ॥१४७|| इस घटनासे शंखको बड़ा दुःख हुआ। वह कहने लगा कि मेरे निमित्तसे ही निर्नामकको यह दुःख उठाना पड़ा है अतः मुझे धिक्कार है। अन्तमें वह दुखी १. पितुर्भगिनीपुत्रम् इति ग पुस्तके टिप्पणी। २. जातो म, । ३. राज्ञामागतया म. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org