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चतुस्त्रिंशः सर्गः
स्ववंशमाविनं श्रुत्वा जिनेन्द्र देवकीप्रियः । हृष्टः श्रेणिक ! नत्वेति पृष्टवानतिमुक्तकम् ॥१॥ कथं नाथ! जिनो भावी हरिवंशविशेषकः । चरितं श्रोतुमिच्छामि तस्येत्युक्तेश्वदन्मुनिः ॥२॥ द्वीपेऽत्रैव सुपद्मायां शीतोदायास्त्वंपाक्तटे । अभूत् सिंहपुरे भूभृदर्हदासो महाहिंतः ॥३॥ जायास्य जिनदत्तासौ कृतोरुजिनपूजना । लेभे श्रीममृगेन्द्रार्कचन्द्र सुस्वप्नदृक् सुतम् ॥४॥ अपराजित इत्याख्यां स परैरपराजितः । पितृभ्यां लम्मितो द्यावापृथिव्योः प्रथितस्ततः ॥५॥ पुत्री चक्रभृतस्तत्र पवित्रगुणमालिनीम् । कन्यां प्रीतिमती मान्यामुपयेमे स यौवने ॥६॥ तमन्योऽन्यातिशोयिन्यो मानिन्यो गुणमण्डनाः । कन्याश्चारमन् धन्याः सहस्रगणनाः पतिम् ॥७॥ राजा मनोहरोद्याने वन्यं देवैर्विवन्दिषुः । अन्येद्युः ससुतो यातो जिनं विमलवाहनम् ॥८॥ प्रवद्राज नृपोऽस्यान्ते पञ्चराजशतान्वितः । बभ्रेऽपराजितो राज्यं सम्यक्त्वं चैव निर्मलम् ॥९॥ जिनेन्द्रपितृनिर्वाणं गन्धमादनपर्वते । श्रत्वा कृस्वाष्टमं भक्तं कृतनिर्वाणमक्तिकः ॥१०॥ जिनाचा चैत्यगेहाचा समय॑ धनदार्पिताम् । आसीनो जातु जायाभ्यो धर्म सप्रोषधोऽवदत् ॥११॥
अथानन्तर,गोतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! 'तीर्थकर भगवान् अपने वंशमें उत्पन्न होनेवाले हैं। यह सुनकर कुमार वसुदेव बहुत ही हर्षित हुए और उन्होंने उसी समय अतिमुक्तक मुनिराजको नमस्कार कर इस प्रकार पूछा कि 'हे नाथ ! हरिवंशके तिलकस्वरूप जिनेन्द्र भगवान् किस प्रकार होंगे? मैं उनका चरित सुनना चाहता हूँ।' कुमार वसुदेवके इस प्रकार कहनेपर अतिमुक्तक मुनिराज कहने लगे ॥१-२॥
इसी जम्बूद्वापके विदेह क्षेत्रमें शीतोदा नदोके दक्षिण तटपर सुपद्मा नामका देश है। उसमें सिंहपुर नामका नगर है। और उसमें किसी समय राजा अहंद्दास रहता था जो अत्यन्त योग्य
था ॥३।। जिनेन्द्र भगवान्की महापूजा करनेवाली जिनदत्ता उसकी स्त्री थी। एक बार उसने ' लक्ष्मी, हाथी, सिंह, सूर्य और चन्द्रमा ये पांच शुभ स्वप्न देखनेके बाद उत्तम पुत्र प्राप्त किया।॥४॥
चूंकि वह पुत्र दूसरोंके द्वारा कभी पराजित नहीं होता था इसलिए माता-पिताने उसका 'अपराजित' नाम रखा। अपराजित आकाश और पथिवी दोनोंमें ही अत्यन्त प्रसिद्ध था ॥५॥ यौवन काल आनेपर अपराजितने चक्रवर्तीकी पवित्र गणोंकी मालासे सहित, प्रीतिमती नामको माननीय कन्याके साथ विवाह किया ॥६|| इसके सिवाय जो परस्पर एक दूसरेकी शोभाका उल्लंघन कर रही थीं, माननीय थीं एवं गुणरूपी आभूषणोंसे सुशोभित थीं ऐसी सौभाग्यशालिनी एक हजार कन्याएँ उसे और भी क्रीड़ा कराती थीं ॥७॥ किसी एक दिन राजा अहंद्दास, मनोहर नामक वनमें देवोंके द्वारा वन्दनीय विमलवाहन भगवान्को वन्दना करनेके लिए अपने पुत्र सहित गया ।।८॥ उपदेशसे प्रभावित होकर राजा अर्हद्दासने पांच सौ राजाओंके साथ उन्हीं भगवान्के समीप दीक्षा ली। पिताके दीक्षा लेनेके बाद युवराज अपराजितने राज्य एवं निर्मल सम्यग्दर्शन धारण किया ।।९।। एक दिन अपराजितने सुना कि गन्धमादन पर्वतपर जिनेन्द्र विमलवाहन और पिता अहंद्दासको मोक्ष प्राप्त हो गया है। यह सुनकर उसने तीन दिनका उपवासकर निर्वाण भक्ति को ।।१०।। एक बार राज अपराजित, कुबेरके द्वारा समर्पित जिन-प्रतिमा एवं चैत्यालयमें विराजमान अर्हत्प्रतिमाकी पूजा कर उपवासका नियम ले मन्दिरमें बैठा हुआ अपनी १. दक्षिणतटे । २. शयिनो क., ख., म. । ३. चारीरमद्धन्याः म.। ४. प्रोषधोऽबुधत् म. । प्रौषधोऽब्रुवत् ख., ग., घ., ङ.।
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