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हरिवंशपुराणे काले तत्र मुनी व्योम्नश्चारणाववतेरतुः । नत्वा क्षितौ सुखासीनौ पप्रच्छेति कृताञ्जलिः ॥१२॥ तोषः साधुषु मे नाथौ ! जैनस्याकृत्रिमो युवाम् | अपूर्वो वीक्ष्य किं जातः सहजस्नेहवर्मनः ॥१३॥ अस्ति तत्पूर्वसंबन्धः स्नेहाधिक्यप्रबोधनः । राजनित्याह तत्राद्यः स्रवन्निव गिरामतम् ॥१४॥ पाश्चात्यपुष्करार्द्धस्य विदेहस्यापरस्य हि । रौप्यानेरुत्तरश्रेण्यामस्ति गण्यपुरं पुरम् ॥१५॥ सूर्याभो विभुरस्यासीत्सूर्याभ इति भूपतिः । धारिणी धारिणीवार्या गृहिणी तस्य हारिणी ॥१६॥ पुत्रास्त्रयस्तयोश्चिन्तामनश्चपलपूर्वकाः । गत्यन्ता वे वन्तस्ते स्नेहवन्तः सुपौरुणाः ॥१७॥ तत्रैवारिंजयो राजा पुरेऽरिंजयसंज्ञके । कन्यारयाजितसनाया जाता प्रीतिमती वरा ॥१८॥ सिद्धविद्या प्रसिद्धासौ स्त्रैणगर्हणकारिणी । गुरं प्राह बरं देहि पितरेकममीप्सितम् ॥१५॥ कन्याकूतविदूचे स वृणीव वरमीप्सितम् । तपसोऽन्यमितीदं च श्रुत्वाह प्रोतिमत्यपि ॥२०॥ तपो वरप्रसादो मे पितयदि न दीयते । गतियुद्धे विजेत्रेऽहं देयेत्येष वरोऽस्तु मे ॥२१॥ तथास्त्वित्यभिधायासावाजुहाव नभश्वरान् । स्वयंवरे स्वकन्याया गतियुद्धजिगीषया ॥२२॥ विश्वान् विद्याधरान् प्राप्तान् प्राह कन्यापिता सतः । गतियुद्ध समर्थोऽस्या ददातु दुहितुर्मम ॥२३॥
मेरं प्रदक्षिणीकृत्य कृत्वा जिनवरार्चनम् । प्राप्तस्येह द्वयोः पूर्वमेकस्य विजयो मतः ॥२४॥ स्त्रियोंके लिए धर्मोपदेश कर रहा था ॥११॥ कि उसी समय दो चारणऋद्धिधारी मुनिराज आकाशसे नीचे उतरे। जब दोनों मुनिराज पृथ्वीतलपर सुखसे विराजमान हो गये तव राजा अपराजितने हाथ जोड़ नमस्कार कर उनसे इस प्रकार पूछा-||१२||
हे नाथ ! वैसे तो जैनधर्मके साधुओंको देखकर मुझे अकृत्रिम-स्वाभाविक आनन्द होता ही है परन्तु आप दोनोंके दर्शन कर आज अपूर्व ही आनन्द हो रहा है तथा मेरा स्वाभाविक स्नेह उमड़ पड़ा है सो इसका कारण क्या है ? ||१३|| उन मुनियोंमें जो बड़े मुनि थे वे अपनी वाणीसे अमृत झराते हुएके समान बोले कि हे राजन् ! पूर्वभवका सम्बन्ध ही स्नेहकी अधिकताको प्रकट करनेवाला है। मैं पूर्वभवका सम्बन्ध कहता हूँ सो सुनो-||१४।।
पश्चिम पुष्करार्धके पश्चिम विदेह क्षेत्रमें जो रूप्याचल है उसकी उत्तर श्रेणी में एक गण्यपुर नामका नगर है ॥१५॥ उस नगरका स्वामी सूर्याभ था जो सचमुच हो सूर्याभ-सूर्यके समान आभावाला था और धारिणी उसकी स्त्री थी जो दूसरी धारिणो-पृथिवीके समान जान पड़ती थी और आर्य तथा अत्यन्त सुन्दरी थी ।।१६।। उन दोनोंके चिन्तागति, मनोगति और चपलगति नामके तीन पुत्र थे, जो अतिशय वेगशाली, स्नेहवान् और उत्तम पराक्रमसे युक्त थे ॥१७॥ उसी समय अरिजयपुरमें राजा अरिजय रहता था उसकी अजितसेना नामकी स्त्री थी और उससे उसके प्रीतिमती नामकी उत्तम कन्या उत्पन्न हुई थी ॥१८॥ प्रीतिमतीको अनेक विद्याएँ सिद्ध थीं, वह अत्यन्त प्रसिद्ध थी और स्त्रो पर्यायकी सदा निन्दा करती रहती थी। एक दिन उसने अपने पितासे कहा कि हे पिताजी ! मुझे एक इच्छित वर दीजिए ।।१९।। पिता कन्याके भावको जानता था इसलिए उसने कहा कि तपके सिवाय और जो कुछ वर तुझे इष्ट हो सो मांग ले। पिताका उत्तर सुनकर प्रोतिमतीने कहा कि हे पिताजी! यदि तप करनेका वर आप नहीं देते हैं तो यह वर मुझे अवश्य दोजिए कि गतियुद्धमें जीतनेवालेके लिए हो मैं दो जाऊं ॥२०-२१॥ 'तथास्तु' कहकर पिताने कन्याका वर स्वीकृत कर लिया और गतियुद्ध में जीतने की इच्छासे अपनी कन्याका स्वयंवर रचकर उसमें विद्याधरोंको आमन्त्रित किया ।। २२।। तदनन्तर जब सब विद्याधर आ गये तब कन्याके पिताने सबको लक्ष्य बनाते हुए कहा कि आप लोगों में जो भी समर्थ हो वह मेरी पुत्रीके लिए गतियुद्धका अवसर देवे ।। २३ ।। गतियुद्धका रूप यह है कि वर और कन्या जो भी, मेरु पर्वतकी प्रदक्षिणा देकर तथा श्री १. सूर्याभवितु-म. (?) । २. मनोहारिणी। ३. नभश्चरं म.। ४. गतियुद्ध म. ।
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