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हरिवंशपुराणे जलाथं तत्र लोकानां घटदासीभिः सा तथा । भणिता जिनदासस्य चेटिकाहितबुद्धिभिः ॥४९॥
तेके स्वस्य प्रणामं कुरु सत्वरम् । सा चावादीन्न मे भक्तिरस्योपरि करोमि किम् ॥५०॥ ततो हठान्नामितामिः' सा जगौ धीवरस्य हे। पातिताहं पदद्वन्द्वेश्रवणा । मूढधीः ॥५॥ गतो राजसमीपेऽसौ जगावाक्रोशितोऽप्यहम् । श्रेष्ठिना जिनदत्तेन मो प्रमो कारणं विना ॥५२॥ राज्ञा ह्यानाय पृष्टोऽसौ जिनदत्तो बमाण तम् । अस्य मे दर्शनं नास्ति किं शाप्यमब्रवीन्मनिः ॥५३॥ शापितश्चास्य दास्याहं पृष्टाचानाय्य तेन सा । कथं न नमसे पापे मुनि निन्दयसि क्रुधा ॥५४॥ तयोक्तंन मुनिस्वेष धीवरोऽस्ति प्रभो कुधीः । जटाभारस्य नो अस्य शुद्धिः कुत्रापि दृश्यते ॥५५।। शोधिते बहयो मत्स्याः सूक्ष्मास्तेभ्यश्च निर्गताः । लजितो हसितो लोकैम॒षावादी स्वसौ मुनिः ॥५६॥ यदा स परीक्षितो राज्ञा तदा कोपं विधाय सः । प्रकाशित निजाज्ञानो मथुरायां विनिर्गतः ॥५७।। वाराणसी समासाद्य समासादितनिश्चयः । गत्वा बाह्यं च गङ्गायाः संगमे कुरुते तपः ।।५८॥ वीरभद्रगुरुश्चागात् सपञ्चशतशिष्यकः । तद्देशं तत्र चैकेन नवप्रव जितेन सः ॥५॥ प्रशंसितो वशिष्ठोऽयमहो घोरतपा इति । वारितः स तपः कीदृगज्ञानस्येति सूरिणा ॥६॥ वशिष्ठेन किमज्ञोऽहमित्युक्तो गुरुरब्रवीत् । त्वं षड्जीवनिकायानां पीडनादज्ञ इत्यसौ ॥६१।।
पञ्चाग्नितपसि प्रायो नियोगो दहनस्य हि । दह्यन्ते तेन चावश्यं पञ्चै कविकलेन्द्रियाः ॥१२॥ तू शीघ्र ही इस साधुको नमस्कार कर। उत्तरमें प्रियंगुलतिकाने कहा कि इसके ऊपर मेरी भक्ति बिलकुल नहीं है। मैं क्या करूं? ॥४८-४९॥ तदनन्तर अन्य पनिहारिनोंने प्रियंगुलतिकाको जबरदस्ती उस साधुके चरणोंमें नमा दिया । प्रियंगुलतिकाने रुष्ट होकर कहा कि अहो ! तुम लोगोंने मुझे धीवरके चरणों में गिरा दिया। प्रियंगुलतिकाके उक्त वचन सुनते ही मूर्ख साधु कुपित हो उठा ॥५७-५१॥ वह सीधा राजा उग्रसेनके पास गया और कहने लगा कि हे प्रभो ! जिनदत्त सेठने मुझे बिना कारण ही गाली दी है ॥५२॥ राजाने जिनदत्त सेठको बुलाकर पूछा ता उसने कहा कि नाथ ! मैंने तो इसे देखा भी नहीं है फिर गाली तो दूर रही है। इसके उत्तर में साधुने कहा कि इसकी दासीने गाली दी है। राजाने दासीको बुलाकर क्रोध दिखाते हुए पूछा कि अरी पापिन ! तू इस साधुको नमस्कार क्यों नहीं करती? उलटी निन्दा करती है ? ॥५३-५४॥
दासीने कहा कि प्रभो ! यह साधु नहीं है यह तो मूर्ख धीवर है। इसकी जटाओंमें कहीं भी शुद्धता नहीं दिखाई देती ॥५५।। साधुको जटाएं शोधी गयीं तो उनसे बहुत-सी छोटी-छोटी मछलियां निकल पड़ीं। इससे साधु बहुत लज्जित हुआ और यह 'असत्यवादी है' यह कहकर लोगोंने उसकी बहुत हँसी उड़ायी ।।५६|| जब राजाने उसकी परीक्षा ली तो वह क्रोध कर अपना अज्ञान प्रकट करता हुआ मथुरासे बाहर चला गया ॥५७॥ और बनारस जाकर वहाँ रहनेका उसने निश्चय कर लिया। अब वह बनारसके बाहर जाकर गंगाके किनारे तप करने लगा|॥५८।। किसी एक दिन वहां अपने पांच सौ शिष्यों के साथ वीरभद्र मुनिराज आये। उनके संघके एक नवदीक्षित मुनिने वशिष्ठकी तपस्या देख, 'अहा! यह घोर तपस्वी वशिष्ठ है' इस प्रकार उसकी प्रशंसा की। अरे अज्ञानीका तप कैसा ?' यह कहते हुए आचार्यने उस नवदीक्षित मुनिको प्रशंसा करनेसे रोका ।।५९-६०॥ वशिष्ठने पूछा कि 'मैं अज्ञानी कैसे हूँ ?' इसके उत्तरमें आचार्यने कहा कि तम छह कायके जीवीको पीड़ा पहुंचाते हो इसलिए अज्ञानी हो ॥६॥ पंचाग्नि तपमें अग्निका संसर्ग अवश्य रहता है और उस अग्निके द्वारा पंचेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय तथा एकेन्द्रिय १. नामिता आभिः । २. श्रवणाददुष्टो क., ग.। ३. प्रभोऽहं कारणाद्विना म. । ४. राज्ञानाय्य म. 1 ५. ख. पुस्तक एकोनपञ्चाशत्तमात षट्पञ्चाशत्तमपर्यन्ताः श्लोका न सन्ति । तत्स्थाने निम्नाङ्गितः पाठोऽधिको वर्तते-'श्रेष्ठिनो जिनदत्तस्य भृत्ययाज्ञान इत्यसो। हेतोः कुतोऽप्यधिक्षिप्तः प्रियङ गुलतिकाख्यया ॥ क्रुद्धो राजानमद्राक्षोद राज्ञा चापि परीक्षितः ॥ ६ बाह्यश्च म., ग.।
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