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त्रयस्त्रिशः सर्गः
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पृथिव्यप्तेजसा वायोः प्राणिनां च वनस्पतेः । प्रघाते ज्ञानहीनस्य कुतः स्यात् प्राणिसंयमः ॥१३॥ विरागस्यापि मिथ्याद्गज्ञानचारित्रमानिनः । संज्ञानपूर्वको जन्तोः कुतश्चेन्द्रियसंयमः ॥६॥ केवलं कायसंतापं भजमानस्य मानिनः । सम्यकसंयमहीनस्य तापस्य मुक्तये कुतः ॥१५॥ जैन एव हि सन्मार्ग संयमस्तप एव च । दर्शनं चापि चारित्रं ज्ञानं चाशेषभासनम् ॥६६॥ अवेहि तापसात्मीयं पितरं व्यालतां गतम् । ज्वालाधूमावलीव्याप्ते दह्यमानमिहेन्धने ॥६॥ इत्युक्ते तापसः काष्टं कुठारेण विपाट्य सः । ददर्श दंदशूकं तं दह्यमानं तदाकुलम् ॥६८॥ कृततापसधर्मस्य ब्रह्मास्यस्वपितुर्गतिम् । कुत्सितामवगम्यासावज्ञत्वं चापि चास्मनः ॥६९॥ ज्ञात्वा च जैनधर्मस्य ज्ञानपूर्वकता तथा । वीरभद्रगुरोरन्ते 'वशिष्ठोऽधिष्ठितस्तपः ॥७॥ एको लाभान्तरायस्य कर्मणः परिपाकतः । तपस्यतामभूत् साधुः स मिक्षालब्धिवजितः ॥७॥ स पर्युपासनातोरागमागमनाय च । शिवगुप्तयतेर्यत्नात् गरुणापि समर्पितः॥७२॥ संतप्तं च स षण्मासान् वीरदत्ते न्ययोजयत् । तथा सोऽपि सुमत्याख्ये षण्मासान् सोऽप्यपालयत् ॥७३॥ यतिधर्मविधानज्ञः परीषहसहस्ततः । बभूवैकविहारी स वशिष्ठो विदितः क्षिती॥७॥ मथुरायामथ संप्राप्तो विहरन् स महातपाः । पूज्यते च प्रजापालप्रजामिर्गुरुवत्तया ॥७५॥
जीव अवश्य जलते हैं ॥६२॥ पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति इन पांच स्थावरों तथा अन्य त्रस प्राणियोका विघात होनेसे अज्ञानी जीवके प्राणिसंयम कैसे हो सकता है॥६३॥ इसी प्रकार जो विरक्त होकर भी मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रको माननेवालाले उसके सम्यग्ज्ञानपूर्वक होनेवाला इन्द्रिय संयम भी कैसे हो सकता है ? ॥६४॥ जो केवल कायक्लेश तपको प्राप्त है, मानसे भरा हुआ है और समीचीन संयमसे रहित है उसकी तपस्या मुक्तिके लिए कैसे हो सकती है ? ॥६५।। एक जैन मार्ग हो सन्मार्ग है, उसी में संयम, तप, दर्शन, चारित्र और समस्त पदार्थोंको प्रकाशित करनेवाला ज्ञान प्राप्त हो सकता है ॥६६॥ हे तापस ! तुम जानते हो तुम्हारा पिता मरकर साँप हुआ है और ज्वालाओं तथा धूमकी पंक्तिसे व्याप्त इसी इंधनमें जल रहा है ॥६७॥ आचार्यके इस प्रकार कहनेपर तापसने कुल्हाड़ासे उस काष्ठको चीरकर देखा तो उसके अन्दर सांप जलता हुआ छटपटा रहा था ॥६८॥ तदनन्तर आचार्यने फिर कहा कि तेरे पिताका नाम ब्रह्मा था और वह तेरे ही समान तापसके धर्मका पालन करता था। उसीसे उसकी यह कुगति हुई है । आचार्यके मुखसे यह सब जानकर वशिष्ठ तापसको जान पड़ा कि मैं अज्ञानी हैं और जैनधर्म सम्यग्ज्ञानसे परिपूर्ण है । अतः उसने उन्हीं वीरभद्र गुरुके पास जैन दीक्षा धारण कर ली ॥६९-७०।। उनके साथ अनेक मुनि तपस्या करते थे परन्तु लाभान्तराय कर्मके उदयसे उन सबमें एक वशिष्ठ मुनि ही भिक्षाके लाभसे वजित रह जाते थे अर्थात् उन्हें भिक्षाकी प्राप्ति बहुत कम होती थी ॥७१।। तदनन्तर वीरभद्र गुरुने सेवाके निमित्त और आगमका विशिष्ट ज्ञान प्राप्त करनेके लिए वशिष्ठ मुनिको यत्नपूर्वक शिवगुप्त यतिको सौंप दिया ॥७२।। छह महीने तक तप करनेके बाद शिवगुप्त यतिने वशिष्ठ मुनिको वीरदत्त नामक मुनिराजके लिए सौंप दिया। वीरदत्त मुनिने भी छह माह अपने पास रखकर उन्हें सुमति नामक मुनिके लिए सौंप दिया और सुमति मुनिने भी छह माह तक उनका अच्छी तरह पालन किया ||७३।। तदनन्तर अनेक गुरुओंके पास रहनेसे जो मुनि-धर्मको विधिको अच्छी तरह जानने लगे थे और परीषह सहन करनेका जिन्हें अच्छा अभ्यास हो गया था ऐसे वशिष्ठ मुनि पृथिवीपर प्रसिद्ध एकविहारी हो गये-अकेले ही विचरण करने लगे ||७४||
___अथानन्तर महातपस्वी वशिष्ठ मुनि कदाचित् विहार करते हुए मथुरा आये सो राजा १. वशिष्ठः तपोऽधिष्ठितवान् इत्यर्थः । २. तपः कुर्वतामन्येषां मध्ये । तपस्यन्समभूत् साधुः क. ।
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