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त्रयस्त्रिंशः सर्गः वरं वृणीष्व तेनोक्तं तिष्ठाचार्य तवौकसि' । दर्शितो वसुदेवेन जरासन्धाय सोऽप्यरिः ॥११॥ दृष्ट्वा च तेन तुष्टेन सुतोपनयनं प्रति । वसुदेवः समादिष्टः कंसेनारग्रहं जगौ ॥१२॥ पृष्टः कसो नृपेणाख्यत् स्वजातिमिति भूपते । मम मञ्जोदरी माता कौशाम्ब्यां सीधुकारिणी ॥१३॥ कंसवाक्यमिति श्रस्वा ततो राजेत्यचिन्तयत् । आकृतिः कथयत्यस्य नायं सीधुकरीसुतः ॥१४॥ आनीनयन्नृपं मक्ष कौशाम्ब्यास्तां निजैस्ततः । प्राप्ता मञ्जोदरी त्वात्तमंजूषानाममुद्रिका ॥१५॥ पृष्टा पूर्वापरं राज्ञा व्यजिज्ञपदिति प्रभो । यमुनायाः प्रवाहेऽयं लब्धो मंजूषया सह ॥१६॥ संवद्धितः शिशू राजन् मया कारुण्ययुक्तया । उपालम्भसहस्राणां भूयो माजनभूतयाँ ॥१७॥ स्वभावाच्चण्डतुण्डोऽयमर्मकान् दुर्भगोऽर्मकः । रमयन्न शिरस्ताडाविना क्रीडति पुण्यवान् ॥१॥ गृहं सीधु गृहीत्यर्थ वेश्यानां बालिकाः श्रिताः। पाणिनाऽऽकृष्य वेणीस्ताः सुखलीकृत्य मुञ्चति ॥१९॥ लोकोपालम्मतो भीत्या मयकायं निराकृतः । कृतवान् शस्त्रशिक्षार्थी शिष्यतां किल कस्यचित् ॥२०॥ कंसमाषिका ह्येषा माता तिष्ठति नाहकम् । तदगुणरस्य दोषैर्वा न स्पृश्ये स्पृश्यतामियम् ॥२१॥ इत्युक्ते देर्शितायां च तया तस्यां व्यलोकत । तन्नाममुद्रिका राजा ततो वाचयति स्म सः ॥२२॥ गर्भस्थोऽपि सुतोऽत्युग्रः पद्मावत्युग्रसेनयोः । जीवताद्वरमात्मीयैः कर्मभिः कृतरक्षणः ॥२३॥
वाचयित्वेति विज्ञाय राजा स्वस्रीयमात्मनः । हृष्टः कन्यां ददौ तस्मै संपन्नगुणसंपदाम् ॥२४॥ कि वर मांग। कंसने उत्तर दिया कि हे आर्य ! अभी वर आपके ही घर रहने दीजिए। वसुदेवने शत्रको ले जाकर जरासन्धको दिखा दिया ॥१०-११॥ शत्रको सामने देख जरासन्ध सन्तुष्ट हआ और वसुदेवसे बोला कि तुम पुत्री जीवद्यशाके साथ विवाह करो। इसके उत्तर में वसुदेवने कह दिया कि शत्रुको कंसने पकड़ा है मैंने नहीं ॥१२॥ राजा जरासन्धने जब कंससे उसकी जाति पूछी तब उसने कहा कि हे राजन् ! मेरी माता मंजोदरी कौशाम्बी में रहती है और मदिरा बनानेका काम करती है ।।१३।। तदनन्तर कंसके वचन सुनकर राजा इस प्रकार विचार करने लगा कि इसको आकृति कहती है कि यह मदिरा बनानेवालीका पुत्र नहीं है॥१४॥ तत्पश्चात् राजा जरासन्धने अपने आदमी भेजकर शीघ्र ही कौशाम्बीसे मंजोदरीको बलाया और मंजोदरी मंजषा तथा नामकी मुद्रिका लेकर वहां आ पहुंची ।।१५।। राजाने उससे पूर्वापर कारण पूछा तो वह कहने लगी कि हे प्रभो ! मैंने यमुनाके प्रवाहमें इसे मंजूषाके साथ पाया था ॥१६॥ हे राजन्, इस शिशुको देखकर मुझे दया आ गयी अतः पीछे चलकर हजारों उपालम्भोंका पात्र बनकर भी मैंने इसका पालन-पोषण किया ।।१७। यह बालक स्वभावसे ही उग्रमुख है-कठोर शब्द बकनेवाला है। यद्यपि यह पुण्यवान् है तो भी अभागा जान पड़ता है। यह बच्चोंके साथ खेलता था तो उनके शिरमें थप्पड़ लगाये बिना नहीं खेलता था। मदिरा खरीदनेके लिए घरपर वेश्याओंकी लड़कियां आती थीं तो हाथसे उनकी चोटियां खींचकर तथा उन्हें तंग करके ही छोड़ता था ॥१८-१९|| इसकी इस दुष्प्रवृत्तिसे मेरे पास लोगोंके उलाहने आने लगे जिनसे डरकर मैंने इसे निकाल दिया। यह शस्त्र विद्या सीखना चाहता था इसलिए किसोका शिष्य बन गया ॥२०॥ यह कांसको मंजूषा ही इसकी माता है मैं नहीं हूँ ,अतः इसके गुण अथवा दोषोंसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है। लीजिए यह मंजूषा है-यह कहकर उसने साथ लायो हुई मंजूषा राजाको दिखा दो। जब मंजूषा खोली गयो तो उसमें उसके नामकी मुद्रिका दिखी। राजा-जरासन्ध उसे लेकर बाँचने लगा ॥२१-२२॥ उसमें लिखा था कि यह राजा उग्रसेन और रानी पद्मावतीका पुत्र है। जब यह गर्भमें स्थित था तभीसे अत्यन्त उग्र था। इसकी उग्रतासे भयभीत होकर ही इसे छोड़ा गया है, यह जीवित रहे तथा इसके अपने कर्म ही इसकी रक्षा करें ॥२३॥ मुद्रिकाको बांचकर राजा जरासन्ध समझ गया कि यह हमारा भानजा है अतः उसने हर्षित होकर उसे १. तवान्ति के म., ख. । २-३. रंजोदरो म. । ४. भीतया म. । ५. सोधुनो मद्यस्य गृहीतिस्तदर्थम् ।
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