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द्वात्रिंशः सर्ग: समुद्रविजयं दृष्ट्वा वसुदेवं च देवता' । ययौ वनवतीप्रीता निजं स्थानं हितोथता ॥४३॥
शार्दूलविक्रीडितवृत्तम् लोकः शौर्य पुरोद्भवोऽपि च तदा शौर्यार्जितं निर्जित
क्ष्माभृच्चक्रमुदारचारुचरितं विद्याधरीवल्लभम् । देवाभं वसुदेवमाप्तविभवं दृष्ट्वातितुष्टोऽगदोद्
धर्मस्यैष जिनोदितस्य महिमा पूर्वार्जितस्येत्यसौ ॥४॥ इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती सकलबन्धुवधूसमागमवर्णनो
नाम द्वात्रिंशः सर्गः ॥३२॥ समाप्तं चेदं विद्याधरकाण्डम्
तदनन्तर जिनका उदय, बन्धरूपी सागरके लिए हितकारी था ऐसे रोहिणीश-कुमार वसुदेव ( पक्षमें चन्द्रमा ) शौर्यपुरमें रहते हुए क्रीड़ा करने लगे ॥४२॥ सदा हित करनेमें उद्यत रहनेवाली वनवती देवी समुद्रविजय और वसुदेवको देखकर बहुत प्रसन्न हुई और अन्तमें उनसे पूछकर अपने स्थानको चली गयी ॥४३॥ जो शूर वीरतासे बलिष्ठ थे, जिन्होंने राजाओंके समूहको जीत लिया था, जो उदार एवं सुन्दर चरित्रसे युक्त थे, विद्याधरियोंके स्वामी थे, देवतुल्य थे, और महान् वैभवको प्राप्त थे ऐसे वसुदेवको देखकर उस समय शौर्यपुरके लोग अत्यन्त सन्तुष्ट हो यही कहते थे कि यह पूर्पोपार्जित जैनधर्मकी ही महिमा है ॥४४॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराणमें समस्त माइयों और वियों के समागमका वर्णन करनेवाला बत्तीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ।।३।।
विद्याधर काण्ड समाप्त
१. वसुदेवः पक्षे चन्द्रः । २. वेगवती ग., क., ङ. ।
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