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हरिवंशपुराणे श्यामामादाय संप्राप्तः श्रावस्तीममयत्ततः । प्रियङ्गसुन्दरी शौरिस्तां च बन्धुमती प्रियाम् ॥२७॥ महापुरासमादाय सोमश्रियमसौ प्रियाम् । इलावर्धनतो निन्ये मान्या रस्नावती च ताम् ॥२८॥ नगरे मद्रिलाभिख्ये गृहीत्वा चारुहासिनीम् । पौण्इं संस्थाप्य तत्रैव गत्वा जयपुरं ततः ॥२९॥ अश्वसेनामुपादाय गत्वा शालगुहं पुरम् । पन्नावतीं समादाय वेदसामपुरं ययौ ॥३०॥ कपिलं तत्र पुत्रं स्वमभिषिच्य ततोऽपि च । गृहीत्वा कपिला प्रापदचलग्राममन च ॥३१॥ मित्रश्रियं प्रगृह्यागान्नगरं तिलवस्तुकम् । कन्यापञ्चशतं प्राही पुरं गिरितटं गतः ॥३२॥ ततः सोमश्रिया युक्तश्वम्पां प्राप महापुरीम् । अतोऽमात्यसुतां निन्ये सह गन्धर्वसेनया ॥३३॥ पुरे विजयखेटे च सूनुमकरदृष्टिकम् । दृष्ट्वा विजयसेना स निन्ये कुलपुरं ततः ॥३४॥ पद्मश्रियमुपादाय तथैवावन्तिसुन्दरीम् । सूरसेना सपुत्रां च जरा जीवद्यशोऽन्विताम् ॥३५॥ गृहीत्वान्याः स्वमार्याः स वसुदेवः ससंमदः । आययौ प्रमदं प्राप्तो विमानेनाशुगामिना ॥३६॥ आससाद विमानं तच्चारुसंगीतसंगतम् । आशु शौर्यपुरं सूर्यविमानमिव मास्वरम् ॥३०॥ ततो वनवती देवी समुद्रविजयं स्वयम् । प्राग दृष्टयावर्धयत्तुष्ट्या वसुदेवागमाप्तया ॥३८॥ कारयित्वा ततः पौरैः पुरशोभा नृपो मुदा । निर्ययो बन्धुमिः साद्धं तस्यामिमुखमादृतैः ॥३९॥ सोऽवतीर्य विमानाग्रादग्रजान् गुरुबान्धवान् । प्रणनाम प्रियायुक्तः प्रणतः प्रणयात् परैः ॥४०॥ देव्यः शिवादयो ननं सयोषं साश्रलोचनाः । तमाश्लिष्याशिषो भूयः खेऽविश्लेषफला ददुः ॥४१॥
सम्मानितयथायोगजनताजनितादरः । स रेमे रोहिणीशोऽस्मिन् बन्धुसिन्धुहितोदयः ॥४२॥ मनाया-प्रसन्न किया ।।२६।। तदनन्तर श्यामाको लेकर श्रावस्ती पहुंचे। वहांसे प्रियंगुसुन्दरी और बन्धुमतीको साथ ले महापुर गये । महापुरसे प्रिया सोमश्रीको लेकर इलावर्धनपुर पहुंचे। वहांसे माननीय रत्नावतीको लेकर भद्रिलपुर गये। वहाँसे चारुहासिनीको साथ लेकर तथा उसके पत्र पौण्डुको वहीं बसाकर जयपुर गये । वहाँसे अश्वसेनाको साथ ले शालगुह नगर पहुँचे। वहाँसे पद्मावतीको लेकर वेदसामपुर गये ॥२७-३०|| वहां अपने कपिल नामक पुत्रका राज्याभिषेक कर कपिलाको साथ ले अचलग्राम आये ॥३१॥ वहांसे मित्रश्रीको लेकर तिलवस्तु नगर गये वहां पांच सौ कन्याओंको ग्रहणकर गिरितट नगर पहुंचे ॥३२।। वहाँसे सोमश्रीको साथ ले चम्पापुरी पहुँचे । वहाँसे मन्त्रीकी पुत्री और गन्धर्वसेनाको साथ ले विजयखेट नगर गये । वहाँ अक्रूरदृष्टि नामक पुत्रसे मिल कर तथा विजयसेनाको साथ लेकर कुलपुर पहुंचे ॥३३-३४॥ वहाँसे पद्मश्री, अवन्तिसुन्दरी, पुत्र सहित सूरसेना, जरा, जीवद्यशा तथा अपनी अन्य स्त्रियोंको साथ ले हर्षित होते हुए शीघ्रगामी विमानसे वापस आये ॥३५-३६।। जो सुन्दर संगीतसे युक्त, तथा सूर्यके विमानके समान देदीप्यमान था ऐसा उनका वह विमान शीघ्र ही शौर्यपुर आ पहुँचा ॥३७॥
तदनन्तर वनवती देवीने स्वयं ही पहलेसे आकर वसुदेवके आगमनसे उत्पन्न हर्षसे राजा समुद्रविजयको वृद्धिंगत किया-वसुदेवके आगमनका समाचार सुनाकर प्रसन्न किया ॥३८॥ तत्पश्चात् राजा समुद्रविजय, प्रजाजनोंसे नगरकी शोभा कराकर बड़े हर्षसे आदरसे युक्त बन्धुजनोंके साथ कुमार वसुदेवको लेनेके लिए उनके सम्मुख गये ॥३९॥ वसुदेवने अपनी समस्त स्त्रियों सहित विमानसे उतरकर बड़े भाइयों तथा अन्य गुरुजनोंको प्रणाम किया तथा अन्य लोगोंने प्रेमपूर्वक वसुदेवको प्रणाम किया ॥४०॥ जिनके नेत्रोंमें हर्षके अश्रु भर रहे थे ऐसी शिवा आदि महारानियोंने स्त्रियों सहित नमस्कार करते हुए वसुदेवका आलिंगन कर आकाशकी ओर मुंह कर बार-बार यही आशीर्वाद दिया कि अब पुनः वियोग न हो ॥४१॥ कुमारने आगत जनताका यथायोग्य सम्मान किया और जनताने भी उनके प्रति आदरका भाव प्रकट किया। १. धनवती म.।
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