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त्रयस्त्रिंशः सर्गः
अथ स प्रार्थितः प्राज्यैः पार्थिवः पार्थिवात्मजैः । शस्त्रोपदेशमातन्वन्नास्ते सूर्यपुरे यदुः ॥ १ ॥ *जातु कंसादिभिः शिष्यैर्धनुर्वेदविचक्षणैः । गतो राजगृहं शौरिर्जरासन्धदिदृक्षया ॥२॥ अश्रौषीद् घोषणां राज्ञः पुरे राजकराजिते । सावधानस्य लोकस्य समाकर्णयतस्तदा ॥३॥ यः सिंहरथमुवृत्तं तं सिंहपुरवासिनम् । सत्यसिंहरथारूढमारूढपुरुपौरुषम् ॥४॥ जीवग्राहं गृहीत्वासौ दर्शयिष्यति मेऽग्रतः । स एव पुरुषो लोके शूरः शूरतरोऽपि च ॥५॥ तस्य मानधनस्यान्ते पीतशत्रुयशोऽम्बुधेः । आनुषङ्गिक मध्ये तत्फल मन्य सुदुर्लभम् ॥ ६ ॥ जीवद्यशसमाशान्तविश्रान्तयशसं गुणैः । सुतामीप्सितदेशेन सह दास्यामि सुन्दरीम् ॥७॥ श्रुत्वा तां घोषणां श्रव्यां वीरैकरसभावितः । कंसेनाग्रायद्वीरः पताकां यदुनन्दनः ॥८॥ arita समारुह्य विद्यासिंहमयं रथम् । सिंहश्रृङ्खलमच्छेत्सीत् शरैस्ते हरयोऽप्यगुः ॥९॥ शत्रुमुत्प्लुत्य कंसस्तं बबन्ध गुरुशासनात् । दृष्ट्वा कंसस्य कौशल्यं वसुदेवो जगौ तकम् ॥१०॥
अथानन्तर राजा वसुदेव, श्रेष्ठ राजपुत्रों द्वारा प्रार्थित होनेपर उन्हें शस्त्र विद्याका उपदेश देते हुए सूर्यपुरमें रहने लगे || १|| किसी दिन कुमार वसुदेव, धनुर्विद्यामें प्रवीण अपने कंस आदि शिष्यों के साथ, राजा जरासन्धको देखने की इच्छासे राजगृह नगर गये ||२|| उस समय वह राजगृह नगर बाहर से आये हुए अनेक राजाओंके समूहसे शोभित था । उसी समय वहां सावधान होकर श्रवण करनेवाले लोगोंके लिए राजा जरासन्धकी ओरसे निम्नांकित घोषणा दी गयी थी जिसे वसुदेवने भी 'सुना ||३|| घोषणा में कहा गया था कि "सिंहपुरका स्वामी राजा सिंहरथ बड़ा उद्दण्ड है, वह वास्तविक सिंहोंके रथपर सवारी करता है और उत्कट पराक्रमका धारक है । जो मनुष्य उसे जीवित पकड़कर हमारे सामने दिखावेगा वही पुरुष संसार में शूर और अतिशय शूरवीर समझा जावेगा ||४ - ५ || शत्रुके यशरूपी सागरको पीनेवाले उस पुरुषको सम्मानरूपी धन तो समर्पित किया ही जावेगा उसके बाद यह अन्य जन दुर्लभ आनुषंगिक फल भी प्राप्त होगा ||६|| गुणों के कारण जिसका यश दिशाओंके अन्तमें विश्राम कर रहा है तथा जो अद्वितीय सुन्दरी है ऐसी अपनी जीवद्यशा नामकी पुत्री भी मैं उसे इच्छित देशके साथ दूँगा” ||७||
उस हृदयहारी घोषणाको सुनकर वीर-रसमें पगे हुए धीर-वीर वसुदेवने कंससे पताका ग्रहण करवायी । भावार्थ- वसुदेवने प्रेरित कर कंससे, सिंहरथको पकड़नेकी प्रतिज्ञास्वरूप पताका उठवायी ||८|| तदनन्तर वसुदेव, कंसको साथ ले विद्यानिर्मित सिंहों के रथपर सवार हो सिंहपुर गये। जब सिंहरथ, सिंहोंके रथपर बैठकर युद्धके लिए वसुदेवके सामने आया तब उन्होंने बाणोके द्वारा उसके सिंहोंकी रास काट डाली जिससे उसके सिंह भाग गये ||९|| उसी समय कंसने गुरुकी आज्ञासे उछलकर शत्रुको बाँध लिया । कंसकी चतुराई देख वसुदेवने उससे कहा
१. पार्थिवैः म । २. शास्त्रोपदेश - म । ३. राजकेन - राजसमूहेन राजिते - शोभिते । ४. समाकर्ण्य यतस्तदा
म. ।५ - माक्रान्तम ।
* म पुस्तके प्रथमश्लोकादनन्तरं निम्नाङ्कितः पलोको दृश्यते-
दृष्ट्वा कंसस्य कौशल्यं वसुदेवो जगी तकम् । वरं वृणीष्व तेनोक्तं तिष्ठत्वार्य तवान्तिकम् ॥२॥
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