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एकोनत्रिंशः सर्गः
३८१ व्यजिज्ञपत् ततस्तं सा साध्वी साध्वसपूरिता' । ऋतुमत्यार्यपुत्राहं नदि स्यां गर्मधारिणी ॥४०॥ तदा वद विधेयं मे किमिहाकुलचेतसा । पृष्टस्तयाँ स तामाह माकुला म प्रिये ! शृणु ॥४॥ इक्ष्वाकुकुलजो राजा श्रावस्त्यामस्तशात्रवः । शीलायुधस्त्वयावश्यं द्रष्टव्योऽहं सपुत्रया ॥४२॥ इत्याश्वास्य रहस्येनामाश्लिष्य विरहासहः । तावन्निजबलं प्राप्तं तापसाश्रमगोचरम् ॥४॥ दृष्ट्वा तुष्टेन तेनामा प्रविष्टो नगरीमसौ । याते नृपे तया पित्रोर्विनिगृह्य ततस्त्रपाम् ॥४४॥ निवेदितमिदं वृत्तं लोकवृत्तविदग्धया। अन्तर्वनो रहःपत्नी निस्पस्य नृपस्य सा॥४५।। असूत सुतमुद्गीणमिव पित्रानुहारिणम् । प्रसूतिक्लेशतः सा च प्रसूतिसमनन्तरम् ॥४६॥ मृता नागवधूर्जाता ज्वलनप्रभवल्लमा। साहं सम्यक्त्वयोगेन भवप्रत्ययसावधिः ॥४७॥ कृपास्नेहवशात्प्राप्ता पितृपुत्रतपोवनम् । आश्वास्य शोकसंतप्तौ पितरौ पृथुकं तकम् ॥४८॥ एणीस्वरूपिणी स्तन्यपानतोऽवर्द्धयत्ततः । पिता कौशिकपूर्वेण दंदशूकेन वैरिणा ॥४९॥ स दष्टोऽमोघमन्त्रेण जीवितं प्रापितो मया। धर्मोपदेशदानेन दुर्मोचक्रोधदूषितः ॥५०॥ मयासौ ग्राहितो धर्ममयासी गतिमचिंताम् । गताहं पुत्रमादाय तापसीवेषधारिणी ॥५१॥
सोपचारं नृपं दृष्ट्वा तमवोचं नयान्वितम् । तनयस्तव राजेन्द्र ! राजलक्षणराजितः ॥५२।। होकर एकान्तमें ऋषिदत्ताके पास चला गया और शंकारहित एवं वशीभूत ऋषिदत्ताके साथ उसने इच्छानुसार क्रीड़ा की ॥३९॥ तदनन्तर भयसे युक्त हो तापसी ऋषिदत्ताने राजासे कहा कि हे आर्यपुत्र ! मैं ऋतुमती हूँ यदि गर्भवती हो गयी तो युझे क्या करना होगा सो बताओ। इस प्रकार व्याकुल चित्तसे युक्त ऋषिदत्ताके पूछनेपर शीलायुधने कहा कि हे प्रिये ! व्याकुल मत होओ। सुनो, मैं शत्रुओंको नष्ट करनेवाला, इक्ष्वाकु कुलमें उत्पन्न हुआ श्रावस्तीका राजा शीलायुध हूँ। पुत्रके साथ-साथ तुम मुझे अवश्य ही दर्शन देना अर्थात् पुत्र प्रसवके बाद श्रावस्ती आ जाना ॥४०-४२।। इस प्रकार आश्वासन देकर तथा एकान्तमें आलिंगन कर विरहसे उत्कण्ठित होता हुआ वह जानेके लिए उद्यत ही था कि इतनेमें उसकी सेना तपस्वियोंके आश्रममें आ पहुंची ।।४३।। सेनाको देख राजा बहुत सन्तुष्ट हुआ और उसके साथ नगरीको लौट आया। तदनन्तर राजाके चले जानेपर लोकव्यवहारको जाननेवाली ऋषिदत्ताने लज्जा छोड़कर मातापिताके लिए यह वृत्तान्त सुना दिया और कह दिया कि मैं निर्लज्ज राजा शीलायुधकी एकान्तमें पत्नी बन चुकी हूँ और गर्भवती हो गयी हूँ॥४४-४५॥ तदनन्तर नव मास व्यतीत होनेपर ऋषिदत्ताने सुन्दर पुत्र उत्पन्न किया जो बिलकुल पिताके अनुरूप था और ऐसा जान पड़ता था मानो पिताके द्वारा ही प्रकट किया गया हो। प्रसूतिके समय ऋषिदत्ताको क्लेश अधिक हुआ था इसलिए वह प्रसूतिके बाद ही मर गयी और सम्यग्दर्शनके प्रभावसे ज्वलनप्रभवल्लभा नामकी नागकुमारी उत्पन्न हुई। वही मैं हूँ, मुझे देव पर्यायके कारण भवप्रत्यय अवधिज्ञान भी प्रकट हुआ है ।।४६-४७। इसलिए उससे पूर्वभवकी सब बात जानकर दया और स्नेहके वशीभूत हो मैं पिता और पुत्रके तपोवनमें गयी। वहां शोकसन्तप्त माता-पिताको आश्वासन देकर मैंने अपने उस पुत्रको मृगीका रूप रख दूध पिला-पिलाकर बड़ा किया। तदनन्तर कोशिक ऋषिका जीव निदानके कारण सर्प हुआ था सो उसने पूर्व वैरके कारण हमारे पिताको डस लिया परन्तु मैंने अमोघमन्त्रसे उन्हें जीवन प्राप्त करा दिया-अच्छा कर दिया। मेरे पिता यद्यपि जो छूट न सके ऐसे क्रोधसे दूषित थे तथापि धर्मोपदेश देकर मैंने उन्हें धर्म ग्रहण करा दिया जिससे वे मरकर उत्तम गतिको प्राप्त हुए। तत्पश्चात् तापसीका वेष धारणकर और उस पुत्रको लेकर मैं राजा शीलायुधके पास गयी ।।४८-५१॥ राजा शीलायुध बड़ी विभूतिसे युक्त तथा १. भयपूरिता। २. चेतसः म., ग.। ३. तथा म., ग.। ४. पुत्रम् । 'पोतः पाकोभको डिम्भः पृथुकः शावकः शिशुः' इत्यमरः । ५. स्वार्थेऽकप्रत्ययः।
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