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हरिवंशपुराणे प्रमावतीसमीपं त्वं मया नीतिज्ञ ! नीयसे । इति प्रियवचोवाची निनाय खचराचलम् ॥५३॥ प्राप्य गन्धसमृद्धं च नगरं नगमूर्धनि । प्रवेशितो महाभूत्या विद्याधरजनैर्वृतः ॥५४॥ प्रशस्ततिथिनक्षत्रयोगे 'योगे कृते ततः । पितृबन्धुजनैः शौरिप्रमावस्योः प्रहृष्टयोः ॥५५॥ प्रागेव मदनावेशपरस्परवशारमको । वधूवरौ वरौ वृत्तौ भोगसागरवर्तिनौ ॥५६॥
रथोद्धतावृत्तम् संप्रयुक्तमपि वल्लभैः सदा विप्रयोजयति पापकृत्परम् । पूर्वतोऽपि शतशोऽतिवल्लभैयुज्यते तु जिनधर्मकृत्पुरा ॥५७॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती प्रभावतीलाभवर्णनो नाम
त्रिंशः सर्गः ॥३०॥
कुमारको सम्बोधते हुए कहा कि हे वीर ! तुम मुझे प्रभावतीका पितामह जानो, भगीरथ मेरा नाम है और तुम्हारे मनोरथको पूर्ण करनेवाला हूँ॥५२॥ हे नीतिज्ञ ! मैं तुम्हें प्रभावतीके पास लिये जाता हूँ-इस प्रकार मधुर वचन कहता हुआ वह विद्याधर उन्हें विजया पर्वतपर ले गया ॥५३।। वहां पर्वतके मस्तकपर एक गन्धसमृद्ध नामक नगर था। उसमें अनेक विद्याधरोंसे घिरे हुए वसुदेवका उसने बड़े वैभवके साथ प्रवेश कराया ॥५४॥ तदनन्तर प्रशस्त तिथि और नक्षत्रके योगमें प्रभावतीके पिता तथा बन्धुजनोंने हर्षसे युक्त वसुदेव और प्रभावतीका विवाहोत्सव किया ॥५५॥ वसुदेव और प्रभावतीके हृदय कामके आवेशसे पहले ही एक दूसरेके वशीभूत थे। अतः अब वर-वधू बनकर दोनों भोगरूपी सागरमें निमग्न हो गये ॥५६॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि यद्यपि पापी मनुष्य प्रियजनोंके साथ संयोगसे प्राप्त हुए अन्य मनुष्यको सदा प्रियजनोंसे वियुक्त करता है तथापि पूर्वभवमें जिनधर्मको धारण करनेवाला मनुष्य पूर्वकी अपेक्षा सैकड़ों बार अतिशय प्रियजनोंके साथ संयोगको प्राप्त होता है ॥५७।। इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराणके संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें प्रभावतीके
लाभका वर्णन करनेवाला तीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥३०॥
१. योग म.। संबन्धे कृते सतीत्यर्थः।
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