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एकत्रिशत्तमः सर्गः
३९५ अथ सेनामुखं खिमं चिरं कृतरणं निजम् । शौरिहिरण्यनामश्च साधारयितुमुद्यतौ ॥७॥ तो दृष्टिमुष्टिसंधानप्रयोगानमिलक्षितौ । शरैश्छादयितुं लग्नौ पैरयोधानितस्ततः ॥७९॥ न नागो न रथो नाश्वो न नरो वा महाहवे । यो न जर्जरितस्ताभ्यां मुञ्चनयां निशितान् शरान् ॥८॥ द्विट्प्रयुक्तशरासारं वायव्यास्त्रेण सोऽकिरत् । शौरिर्माहेन्द्रवाणेन निचकर्त्त धज्यपि ॥८॥ छत्राणि शशिशुभ्राणि शत्रूणां स यशांसि च । सुतुङ्गान्मूर्धजान्मान्यान् शरपातैरपातयत् ॥४२॥ युध्यमाने तथा तस्मिन् वीरे वीरमयानके । हिरण्यनामवीरेण रणे पौण्डः पुरस्कृतः ॥८॥ कुमाग्योस्तयोस्तत्र सुमहारथवर्तिनोः । शरैयुद्धमभूद्रौद्रं यथा सिंहकिशोरयोः ॥८॥ अपातयद ध्वज छत्रं सैधिरिः सारथिं रिपोः । रथस्य तुरगान वेगादध्यक्षांश्च शरैः शितैः ॥८५॥ ततश्चण्डरुषा पौण्ड्रो वज्रदण्डनिभैः शरैः । कृतानुरूपमस्यारेः स चकार तदेव हि ॥८६॥ ततो हिरण्यनाभोऽपि बिभेद कवचं द्विषः । केतुं छत्रं च बाणौधै रथसारथिवाजिनः ॥८७॥ विरथीकृत्य पौण्ड्रोऽपि तमाशु शितसायकैः । सद्यः प्राणहरं तस्य संधत्ते यावदाशुगम् ॥४८॥ वसुदेवोऽर्द्धचन्द्रेण तावच्छिवास्य तद्धनः । चक्रे हिरण्यनामं च स्वरयास्व रथे स्थिरे ॥८॥ छायमाने तथा पौण्डे शौरिणा शरवर्षिणा। ववृषुः शरसंघातानेकीभूय बहुद्विषः ॥१०॥ शरैः शरान निवासी बिभेद निशितैः शरैः । शत्रु शत्रुवितीर्णोच्चैः साधुकारः पदे पदे ॥११॥
था ।।७७॥ तदनन्तर चिरकाल तक युद्ध करनेके बाद जो खेद-खिन्न हो गया था ऐसी अपनी सेनाके अग्रभागको सहारा देनेके लिए वसुदेव और स्वर्णनाभ दोनों ही उद्यत हुए ॥७८॥ दृष्टिको अपहरण करनेवाले प्रयोगसे जिन्हें कोई देख नहीं पाता था ऐसे ये दोनों ही जहां-तहाँ बाणोंके द्वारा शत्र-पक्षके योद्धाओंको आच्छादित करने लगे ॥७९॥ उस महायद्धमें न ऐसा हाथी था, न रथ था, न घोड़ा था और न मनुष्य ही था जो तीक्ष्ण बाणोंको छोड़नेवाले उन दोनोंके द्वारा जर्जरित न किया गया हो ।।८०॥ कुमार वसुदेव शत्रुके द्वारा चलाये हुए बाणोंकी वर्षाको तो वायव्य अस्त्रसे तितर-बितर कर देते थे और अपने माहेन्द्र बाणसे शत्रुओंके धनुष तकको तोड़ देते थे ॥८१। उन्होंने बाणोंके प्रहारसे शत्रुओंके चन्द्रमाके समान सफेद छत्र, उज्ज्वल यश तथा अतिशय उन्नत माननीय शिरके बालोंको नीचे गिरा दिया ।।८२।। इधर वीरोंको भय उत्पन्न करनेवाले शूरवीर वसुदेव इस प्रकार भयंकर युद्ध कर रहे थे और उधर वीर स्वर्णनाभने युद्धक्षेत्रमें पौण्ड्र राजाको अपने सामने किया ।।८३|| जिस प्रकार सिंहके दो बच्चोंका भयंकर युद्ध होता है उसी प्रकार अतिशय महान् रथपर बैठे हुए उन दोनों कुमारोंमें भी बाणों द्वारा भयंकर युद्ध होने लगा ॥८४|| स्वर्णनाभने देखते-देखते तीक्ष्ण बाणोंसे शत्रुको ध्वजा, छत्र, सारथि और रथके घोड़ोंको शीघ्र ही नीचे गिरा दिया ॥८५।। तदनन्तर राजा पौण्ड्रने भी अत्यन्त कुपित हो वज्रदण्डके समान तीक्ष्ण बाणोंसे शत्रुकी नकल करते हुए उसकी ध्वजा, छत्र, सारथि और घोड़ोंको धराशायी कर दिया ॥८६।। तत्पश्चात् स्वर्णनाभने भी बाणोंके समूहसे शत्रुके कवच, पताका, छत्र, रथ, सारथि,
और घोड़ोंको काट डाला ॥८७॥ यह देख पौण्ड्रने भी तीक्ष्ण बाणोंके द्वारा स्वर्णनाभ को शीघ्र ही रथ-रहित कर तत्काल ही उसके प्राणोंको हरण करनेवाला बाण ज्योंही धनुषपर चढ़ाया त्योंही वसुदेवने अर्धचन्द्राकार बाणसे उसके धनुषको काट डाला और शीघ्रताके साथ स्वर्णनाभको अपने स्थिर रथपर चढ़ा लिया ॥८८-८९॥ तदनन्तर लगातार बाण वर्षा करनेवाले वसुदेवने जब पौण्ड्रको आच्छादित कर लिया तब बहुत-से शत्रु एक होकर-मिलकर वसुदेवपर बाणोंके समूहकी वर्षा करने लगे ॥९०॥ परन्तु फिर भी वसुदेव अपने बाणोंसे शत्रुके बाणोंका निवारण १. शनैः म. । २. परं योघानितस्ततः म.। ३. रुधिरस्यापत्यम् पुमान् रोधिरिः। ४. शितिसायकैः म.। . ५. त्वरयाश्वरथे म.।
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