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हरिवंशपुराणे 'कान्दिशीकान् करोम्यय यद्भुतं क्षत्रियानमून् । संख्येऽप्रख्यातवंशस्य सहन्तां मे शरानमी ॥६५॥ इत्युक्त रुधिरोऽतोषि पुरुषान्तरवीक्षणात् । अढौकर्यदृढास्त्रात्यं जवनाश्वमहारथम् ॥६६॥ खेटो दधिमुखः शौरि शूरो रथारस्थितः । मनोरथ इव प्राप्तस्तदा दिव्यास्त्रमासुरः ॥६७॥ प्रणतन स तं प्राह रथमारोह मे तम् । सारथिस्तव युद्धेऽहं जहि शत्रुकदम्बकम् ॥६॥ भारुरोह रथं शौरिस्तस्य तुष्टः परिष्कृतः । चापी च कवची चित्रशरसंघातसंकुलम् ॥६९॥ द्विसहस्ररथं सैन्यं षट्सहस्रमदद्विपम् । चतुर्दशसहस्राइवं लक्षात्मकपदातिकम् ॥७०॥
रौधिरं युधि सानिध्यं शौरेराशु तदाश्रितम् । शत्रुसैन्यविनाशाय कृतनिश्चयमावभी ॥१॥ चतुरङ्गेण तेनाशु बलेन बलशालिना । अदृष्टपारमभ्याञ्च शौरिः शत्रुबलोदधिम् ॥७२॥ संपातश्च तयोर्जातः सेनयोश्चतुरङ्गयोः । समुद्रघोषयोः शङ्खतूर्यादिरवरौद्रयोः ॥७३॥ हस्त्यश्वरथपादातमौचित्येन यथायथम् । हस्त्यश्वरथपादातमभ्येत्यायुध्यदाहवे ॥७॥ नीरन्ध्रशरजालेन नभोरन्ध्रपिधायिना । न सहस्रकरोऽदर्शि रणेऽन्यत्र कथैव का ॥७५॥ असिचक्रगदाघातरक्तधारान्धकारिते। निरुद्धः पादसंचारो रणे तेजोनिधेरपि ॥७६॥ पतनिर्मतमातङ्गः पर्वतैरिव सर्वतः । नरैरश्वै रथै?षः शीर्यमाणैर्महानभूत् ॥७७॥
अख-शखोंसे भरा हुआ रथ शीघ्र ही दीजिए ॥६४॥ जिससे मैं इन क्षत्रियोंको शीघ्र ही पलायमान कर दें। ये लोग युद्ध में जिसके कूलका पता नहीं ऐसे मेरे बाणोंको सहन करें ॥६५।। वसुदेवके इस प्रकार कहनेपर राजा रुधिर बहुत सन्तुष्ट हुआ। वह पुरुषोंके अन्तरको समझनेवाला जो था। तदनन्तर उसने मजबूत अस्त्र-शस्त्रोंसे युक्त एवं वेगशाली घोड़ोंसे जुता हुआ महारथ बुलाया ॥६६॥ उसी समय शूर,वीर, उत्तम रथपर स्थित तथा दिव्य अस्त्रोसे देदीप्यमान दधिमुख नामका विद्याधर मनोरथके समान कुमार वसुदेवके पास आ पहुँचा ॥६७॥ और नम्र होकर बोला कि आप शीघ्र ही मेरे रथपर चढ़ जाइए। युद्ध में में आपका सारथी रहूँगा। आप इच्छानुसार शत्रुओंके समूहको नष्ट कीजिए ॥६८|| उसके वचन सुनकर वसुदेव बहुत सन्तुष्ट हुए और धनुष हाथमें ले तथा कवच धारण कर नाना प्रकारके बाणोंके समूहसे भरे हुए उसके रथपर चढ़ गये ॥६९।। विसमें दो हजार रथ थे, छह हजार मदोन्मत्त हाथी थे; चौदह हजार घोड़े थे और एक लाख पैदल सैनिक थे। ऐसी राजा रुधिरकी विशाल सेना, शत्रु सेनाके नाशका दृढ़ निश्चय कर शीघ्र ही कुमार वसुदेवके समीप आ गयी ।।७०-७१।। उस बलशाली चतुरंग सेनाके साथ वसुदेव शीघ्र ही, जिसका अन्त नहीं दिखाई देता था ऐसे शत्रुकी सेनारूपी समुद्रके सम्मुख गये ॥७२।।
. तदनन्तर समुद्रके समान शब्द करनेवाली एवं शंख, तुरही आदिके शब्दोंसे भयंकर दोनों चतुरंग सेनाओंमें मुठभेड़ शुरू हुई ।।७३॥ हाथी, घोड़ा, रथ और पैदल सैनिक यथायोग्य रीतिसे हाथी, घोड़ा, रथ और पैदल सैनिकोंके सामने जाकर रणक्षेत्रमें युद्ध करने लगे ।।७४।। आकाश-विवरको आच्छादित करनेवाले सघन बाणोंके समूहसे उस समय युद्ध में सूर्य भी दिखाई नहीं देता था फिर अन्य पदार्थोंकी तो बात ही क्या थी ? ।।७५।। तलवार, चक्र और गदाके प्रहारसे निकलती हुई खूनकी धाराओंसे जहां अन्धकार फैल रहा था ऐसे उस रणक्षेत्रमें सूर्यका भी पादसंचार-किरणोंका संचार रुक गया था। पक्षमें अतिशय तेजस्वी मनुष्यका पैदल आनाजाना रुक गया था ॥७६|| वहाँ सब ओर पर्वतोंके समान बड़े-बड़े हाथी गिर रहे थे तथा मनुष्य, घोड़े और रथ जीर्ण-शीर्ण होकर धराशायी हो रहे थे। इन सबसे वहाँ बहुत भारी शब्द हो रहा
१. भयगृतान् । २. आढोक्य म.। ३. यावनाश्व-म.। ४. रथवरं स्थितः म.। ५. रुधिरस्येदं रोधिरं । १. मध्यं च म. । अभ्याञ्च संमुखं जगाम । ७. अभ्येत्य + अयुध्यत् + आहवे। ८. रणेऽन्यत्रव म.।
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