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हरिवंशपुराणे अथ साधुनृपैस्तत्र न्यायविद्भिरितीरितम् । न द्रष्टव्यमिदं युद्धमेकस्य बहूमिः सह ॥१२॥ ततो जगौ जरासन्धो धर्मयुद्धदिदृक्षया । अनेन सह कन्यार्थमेकैको युध्यतामिति ॥९॥ ततः शत्रुजयो लग्नः शौरिणा योद्धमुद्यतः । शेषास्तु प्रेक्षका जाता क्षत्रियाः क्षेतमत्सराः ॥९॥ शरान् शत्रुजयोरिक्षप्तान् शौरिः प्रक्षिप्य दूरतः । तं ध्वस्तरथसंनाहं विह्वलीकृत्य मुक्तवान् ॥१५॥ दत्तवक्त्रस्ततो दत्तचिरयुद्धो महोद्धतः । विरथीकृत्य निर्मुक्तो निःसारीकृतपौरुषः ॥१६॥ रिपुं कालमुखं प्राप्तं रणे कालमिवोद्धतम् । प्राणशेषमसौ कृत्वा विससोंर्जितो यदुः ॥९७॥ शल्यं रथेन संप्राप्तं तीक्ष्णसायकमोचकम् । जम्मणास्त्रेण रौद्रेण बबन्धान्धकवृष्णिजः ॥९८॥ समुद्रविजयं प्राह जरासन्धस्ततो द्रुतम् । त्वं हरास्य रणे दपं पार्थिवाविशारदः ॥९९॥ अपि न्यायविदुत्तस्थौ स राजा राजशासनात् । युद्धे प्रायोऽनुवर्तन्ते प्रभु न्यायविदोऽपि हि ॥१०॥ समुद्रविजयादेशात्पुनः सारथिना रथः । दधावोच्चैर्ध्वजच्छत्री वासुदेवरथं 'प्रति ॥१०॥ दृष्ट्वा ज्येष्टरथं दूरात् कनीयान् सारथिं जगौ । ज्यायांसं मम जानीहि समद्रविजयं विमम् ॥१०॥ मन्दमत्र गुरौ वाह्यो रथो दधिमुख ! त्वया । सापेक्षं हि मया योध्यमनेन गुरुणा रणे ।।१०३॥ यथोद्दिष्टं ततस्तेन रथः सारथिना रणे । नोदितोऽपि ययौ मन्दः स्यन्दनं गुर्वधिष्ठितम् ॥१०॥
कर तीक्ष्ण बाणोंसे शत्रुपर प्रहार करते रहे। उस समय कुमारकी कुशलतासे प्रसन्न होकर शत्रु भी उन्हें पद-पदपर साधु-साधु-बहुत अच्छा बहुत अच्छा कहकर धन्यवाद दे रहे थे ॥११॥
अथानन्तर जो वहाँ न्याय-नीतिके जाननेवाले सज्जन राजा थे उन्होंने कहा कि हम लोगोंको यह युद्ध नहीं देखना चाहिए क्योंकि यह एकका अनेकके साथ हो रहा है-एकके ऊपर अनेक व्यक्ति प्रहार कर रहे हैं इसलिए यह अन्यायपूर्ण युद्ध है ।।९२।। तदनन्तर धर्म-युद्ध देखनेकी इच्छासे जरासन्धने कहा कि अच्छा, कन्याके लिए इसके साथ एक-एक राजा यद्धक तत्पश्चात् जरासन्धका आदेश पाकर राजा शत्रुजय कुमार वसुदेवके साथ युद्ध करनेके लिए उठा और शेष राजा मत्सररहित हो युद्ध देखने लगे ॥९४॥ कुमारने शगुंजयके द्वारा चलाये हुए बाणोंको दूर फेंककर उसके रथ और कवचको तोड़ डाला तथा उसे मूच्छित कर छोड़ दिया ॥१५॥ तदनन्तर मदसे उद्धत राजा दत्तवक्त्र युद्ध करने लगा परन्तु कुमारने उसका भी रथ तोड़ डाला और उसके पौरुषको निःसार कर उसे भगा दिया ॥९६|| तदनन्तर जो यमराजके समान उद्धत था ऐसा कालमुख युद्धके लिए सामने आया सो अतिशय बलवान् वसुदेवने उसे भी प्राण-शेष कर छोड़ दिया ॥९७।। अब रथपर सवार हो तीक्ष्ण बाणोंको छोड़ता हुआ शल्य सामने आया सो वसुदेवने- उसे भी अतिशय भयंकर ज़म्भण नामक अस्त्रसे बांध लिया ॥९८|
तदनन्तर जरासन्धने समुद्रविजयसे कहा कि हे राजन् ! तुम अस्त्र-विद्यामें अत्यन्त निपुण हो इसलिए शीघ्र ही युद्ध में इसका गर्व हरण करो ॥९९|| यद्यपि समुद्रविजय न्याय-नीतिके वेत्ता थे-युद्ध नहीं करना चाहते थे तथापि राजा जरासन्धकी आज्ञासे उठे सो ठीक ही है क्योंकि युद्धके विषयमें न्यायके वेत्ता मनुष्य भी प्रायः अपने स्वामीका ही अनुसरण करते हैं ।।१०।। तत्पश्चात् समुद्रविजयकी आज्ञा पाकर सारथिके द्वारा चलाया हुआ रथ, ऐसा रथ कि जिसपर बहुत ऊंची ध्वजा और छत्र लगा हुआ था, वसुदेवके रथकी ओर दौड़ा ॥१०१॥ वसुदेवने दूरसे ही बड़े भाईके रथको देखकर अपने सारथिसे कहा कि इन्हें तुम मेरे बड़े भाई समुद्रविजय जानो ॥१०२।। हे दधिमुख ! ये हमारे पितातुल्य हैं अतः तुम्हें इनके आगे रथ धीरे-धीरे ले जाना चाहिए। मुझे रणभूमिमें इनके साथ इनकी रक्षाका ध्यान रखते हुए ही युद्ध करना चाहिए॥१०३॥ सारथि-दधिमुखने, वसुदेवकी आज्ञानुसार ही रथ चलाया जिससे वह प्रेरित होनेपर भी १. क्षत्रमत्सराः म.। २. वसुदेवं रथं म. ।
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