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एकत्रिशत्तमः सर्गः
३९३ वसुदेवस्ततो धीरः प्रोवाच क्षुभितान् नृपान् । श्रूयतां क्षत्रियदृतः साधुमिश्च वचो मम ॥५॥ स्वयंवरगता कन्या वृणीते रुचिरं वरम् । कुलीनमकुलीनं वा न क्रमोऽस्ति स्वयंवरे ॥५३॥ अक्षान्तिस्तत्र नो युक्ता पितुओतुर्निजस्य वा । स्वयंवरगतिज्ञस्य परस्येह च कस्यचित् ॥५४॥ कश्चिन्महाकुलीनोऽपि दुर्भगः सुभगोऽपरः । कुलसौभाग्ययोर्नेह प्रतिबन्धोऽस्ति कश्चन ॥५५॥ तदत्र यदि सौभाग्यमविज्ञातस्य मेऽनया। अमिव्यक्तं न वक्तव्यं भवद्भिरिह किंचन ॥५६॥ अथ पौरुषदर्पण कश्चिदत्र न शाम्यति । शमयामि तमाकर्णकृष्टमुक्तः शिलीमुखैः॥५७॥ तच्छ्र स्वाशु जरासन्धः क्रुद्धः प्राह नृपान् नृपाः । गृह्यतामयमुद्वृत्तो रुधिरश्च सपुत्रः ॥५॥ क्षुमिताः पूर्वमेवासन द्विगुणं चक्रिवाक्यतः । खलप्रकृतयो भूपाः समद्धाः यो मुद्यताः ॥५॥ साधुप्रकृतयः केचित्तत्र क्षत्रियपुङ्गवाः । तस्थुः पापनिवृत्तेच्छाः पृथक् स्वबलसंगताः ॥६॥ पक्षास्तु रुधिरस्यैके प्रतिपक्षबिभित्सया। संनय सहसा प्राप्ताः रुधिरारुणवीक्षणाः ॥६॥ रथं हिरण्यनामः स्वं तस्थावारोप्य रोहिणीम् । समस्तबलसंयुक्तो रुधिरोऽपि वरं वरम् ॥६॥ रुधिरो मधुरैर्वाक्यैर्निजयोधानबोधयत् । यूयं महारथा युद्धे कुरुवं युक्तमात्मनः ॥६३॥
वरेण श्वशुरोवाचि पूज्य ! मे स्यन्दनं द्रुतम् । समर्पय महानेकशस्त्रास्त्रपरिपूरितम् ॥६॥ नहीं बतलाता है तो यह कोई नीच कुल में उत्पन्न हुआ है अतः इसे यहांसे हटा दिया जाये और यह कन्या किसी राजपुत्रको दे दी जाये॥५१॥
तदनन्तर धीर-वीर वसुदेवने क्षोभको प्राप्त हुए राजाओंसे कहा कि अहंकारसे भरे क्षत्रिय तथा सज्जन पुरुष हमारे वचन सुनें ॥५२॥ स्वयंवरमें आयी हुई कन्या अपनी इच्छाके अनुरूप कुलीन अथवा अकुलीन वरको वरती है। स्वयंवरमें कुलीन अथवा अकुलीनका कोई क्रम नहीं है ॥५३॥ इसलिए कन्याके पिता, भाई अथवा स्वयंवरकी विधिको जाननेवाले किसी अन्य महाशयको इस विषय में अशान्ति करना योग्य नहीं है ॥५४॥ कोई महाकलमें उत्पन्न होकर भी दुभंग-स्त्रीके लिए अप्रिय होता है और कोई नीच कुलमें उत्पन्न होकर भी सुभग-स्त्रोके लिए प्रिय होता है। यही कारण है कि इस विषयमें कुल और सौभाग्यका कोई प्रतिबन्ध नहीं है ॥५५।। इसलिए यदि इस कन्याने मुझ अपरिचितका सौभाग्य प्रकट किया है तो इस विषयमें आप लोगोंको कुछ नहीं कहना चाहिए ॥५६॥ इतनेपर भी यदि कोई पराक्रमके गर्वसे यहाँ शान्त नहीं होता है तो मैं कान तक खींचकर छोड़े हुए बाणोंसे उसे शान्त कर दूंगा ।।५७॥ वसुदेवके उक्त वचन सुनकर राजा जरासन्ध शीघ्र ही कुपित हो उठा। उसने राजाओंसे कहा कि इस उद्दण्डको तथा पुत्र सहित राजा रुधिरको पकड़ लो ।।५८|| दुष्ट स्वभावके राजा पहले हीसे कपित थे फिर चक्रवर्तीका आदेश पाकर तो दूने कुपित हो गये। तदनन्तर वे दुष्ट राजा तैयार होकर युद्धके लिए उद्यत हो गये ।।५९|| वहाँ जो सज्जन प्रकृतिके राजा थे वे पापसे निःस्पृह हो अपनी-अपनी सेना लेकर अलग खड़े हो गये ॥६०|| जो क्षत्रिय रुधिरके पक्षके थे वे क्रोधसे रक्तके समान लाल-लाल नेत्र करते हुए, शत्रुको घायल करनेकी इच्छासे शीघ्र ही तैयार होकर वहां पहुंचे ॥६१।। राजा रुधिरका पुत्र स्वर्णनाभ रोहिणीको अपने रथपर चढ़ाकर खड़ा हो गया और समस्त सेनासे युक्त राजा रुधिर उत्कृष्ट वर-वसुदेवको अपने रथपर सवार कर खड़ा हो गया ॥६२।। रुधिरने मीठे-मीठे शब्दों द्वारा अपने योद्धाओंको सम्बोधते हए कहा कि हे महारथियो! तुम लोग युद्ध में अपने अनुरूप ही कार्य करो-जैसा तुम लोगोंका नाम है वैसा ही कायं करो ॥६३॥ वसुदेवने अपने श्वसुर-राजा रुधिरसे कहा कि हे पूज्य ! आप मुझे अनेक १. •मुद्वृत्ता म. । २. सुपुत्रकः म. । ३. महारथो म. । ४. युद्धः कुरुध्वं युद्धमात्मनः ग. ।
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