________________
एकत्रिंशतमः सर्गः
३९१ लब्धधीः साह शौर्यादीन् पश्य सौर्य पुराधिपान् । मालामारोपयामीषामेकस्य रुचितस्य ते ॥२५॥ इत्युक्त तेषु चेतोऽस्या बमार गुरुगौरवम् । ततोऽदर्शयदेषास्यै पाण्डं विदुरमप्यतः ॥२६॥ दमघोषं यशोघोषं दत्तवक्त्रं सुविक्रमम् । शल्यं शल्यमिवारीणां तथ्यं शत्रुजयं नृपम् ॥२७॥ चन्द्राभं चन्द्रवस्कान्तं मुख्यं कालमुखं ततः । पौण्डूं च पुण्डरीकाक्षं मत्स्यं मात्सर्यवर्जितम् ॥२८॥ संजयं च जये सक्तं सोमदत्तं नृपोत्तमम् । तत्पुत्रं भ्रातृभिर्युक्तं भूरिश्रवसमाश्रवम् ॥२९॥ सूनुनांशुमतास्यन्तं कपिलं विपुलक्षणम् । तथा पद्मरथं भूपं सोमकं सोमसौम्यकम् ॥३०॥ देवकं देवनाथाभं श्रीदेवं श्रीवधूश्रितम् । प्रदर्य तान् नृपानित्थं वंशस्थानादिशंसिनी ॥३१॥ अन्यानपि च कन्यायै धात्री सा न्यायविजगौ । एतावन्तो नृपा बाले मुख्याः किमिदमास्यते ॥३२॥ कुरु कन्ये गुणं कण्ठे चित्तस्थस्येह कस्यचित् । त्वत्सौभाग्यगुणाकृष्टराजमस्यास्य संनिधौ ॥३३॥ त्वं प्रकाशय सौभाग्य कस्यचिञ्चित्तहारिणः । योग्यभर्तृ परिप्राप्तिचित्तचिन्तास्तनिद्रयोः ॥
वृतयोग्यवरा पित्रोर्मुग्धे कुरु सुखासिकाम् ॥३४॥ एवमुक्तावदस्कन्यां साधु मातरुदीरितम् । किंतु स्वदर्शितेष्वेषु न मनो रज्यते क्वचित् ॥३५॥
दर्शनानन्तरं यत्र स्नेहोऽभिव्यज्यते हृदि । पौनरुक्त्यं भवेद्वाच्यं तत्राप्यत्राप्यतर्षता ॥३६॥ बढ़कर कहा कि हे बेटी ! यह आगे मथुराके स्वामी राजा उग्रसेन बैठे हैं यदि तेरी रुचि हो तो इसकी ओर देख ।।२४।। तदनन्तर विवेकवती धायने आगे बढ़कर कहा कि सौर्यपुरके स्वामी समुद्रविजय आदिको देख, यदि तेरी रुचि हो तो इनमें से किसी एकके गले में माला डाल ||२५|| धाय
र कहनेपर कन्याके चित्तने उन सबके ऊपर गुरुके समान गौरव धारण किया अर्थात् उन्हें गरु समझकर प्रणाम किया। तदनन्तर धायने कन्याके लिए राजा पाण्डको दिखाया और उसके बाद विदुरको भी दिखलाया ॥२६॥ जब उसे इनमेंसे किसीपर भी कन्याका अनुराग नहीं दिखा तब उसने यशकी घोषणा करनेवाले दमघोष, अतिशय पराक्रमी दत्तवक्त्र, शत्रुओंके लिए शल्यके समान दुःख देनेवाले शल्य, सार्थक नामको धारण करनेवाले शत्रुजय, चन्द्रमाके समान सुन्दर चन्द्राभ, अतिशय मुख्य कालमुख, कमलके समान नेत्रोंको धारण करनेवाले पौण्ड्र, मात्सर्यसे रहित मत्स्य, विजय प्राप्त करने में लीन संजय, राजाओंमें उत्तम सोमदत्त, भाइयों सहित सोमदत्तका आज्ञाकारी पुत्र भूरिश्रवा, अंशुमान् नामक पुत्रसे सहित तथा अतिशय विशाल नेत्रोंको धारण करनेवाला राजा कपिल, राजा पद्मरथ, सोम-चन्द्रमाके समान सौम्य राजा सोमक, इन्द्रके समान आमाको धारण करनेवाला देवक और लक्ष्मीरूपी वधूसे सेवित श्रीदेव राजाको दिखाया तथा इन सब राजाओंको दिखाकर उनके वंश और स्थान आदिका भी वर्णन किया ॥२७-३१।। तदनन्तर न्यायको जाननेवाली धायने कन्याके लिए और भी अनेक राजाओंका परिचय देते हुए कहा कि हे बाले ! मुख्य इतने ही हैं। इस तरह चुपचाप क्यों खड़ी है ? इनमेंसे जो भी तेरे हृदयमें स्थित हो-जिसे तू चाहती हो उसके कण्ठमें माला डाल दे। ये सभी राजा तेरे सौभाग्यरूपी गुणसे आकर्षित होकर इधर तेरे समीप स्थित हैं इनमें जो तुम्हारे चित्तको हरण करनेवाला हो उसके सौभाग्यको प्रकाशित कर। हे मग्धे! तेरे लिए योग्य भर्ताकी प्राप्तिकी चिन्तासे तेरे माता-पिताको निद्रा नष्ट हो गयी है सो योग्य वरको स्वीकार कर उन्हें सुखी बना ॥३२-३४॥धायके इस प्रकार कहनेपर कन्याने उत्तर दिया कि हे मातः ! आपने ठीक कहा है किन्तु आपके द्वारा दिखाये हुए इन राजाओंमें-से किसीपर मेरा मन अनुरक्त नहीं हो रहा है ।।३५।। देखनेके बाद ही जिसके ऊपर हृदयमें स्नेह प्रकट हो जाता है उसे वरनेके लिए वचन पुनरुक्त होता है तथा आन्तरिक स्नेहके प्रकट होनेपर ही स्त्री-पुरुष दोनोंमें सन्तोषका अनुभव होता है ।।३६।। इन १. शूल्यं म. । २. -माश्रयं म. । ३. षट्पादोऽयं श्लोकः । ४. कन्यां म. । ५. -प्यनर्थता म. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org