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एकोनत्रिशः सर्गः
प्रियसुन्दरी तं च कथंचिदवलोक्य सा । अनुरक्ता तथा जाता विरक्ताभूद् यथाम्भसि || १४ || रहस्यावाह्य चापृच्छ्य तां स्वां बन्धुमतीं सखीम् । पत्युर्वल्लमिकासि त्वं वैदग्ध्यं चास्य कीदृशम् ॥ १५ ॥ सास्यै मुग्धावदत्तस्य विदुग्घस्य विचेष्टितम् । तथा यथा गता मोहं स्वसंवेद्य सुखासिकम् ॥१६॥ साभिमानमुद्स्यान्तं तस्ये द्वाःस्थमजीगमत् । तत्समागममिच्छाशु स्त्रीवधं वेत्यनुत्तरम् ||१७|| अन्याय्यमुमयं चैतदिति संचित्य यादवः । व्याजेन केनचिद्दक्षः कालक्षेपमयोजयत् ॥१८॥ लब्धप्रत्याशया कन्या शौरिविन्यस्तधीरसौ । शयने निशि संपूर्ण मन्यमाना मनोरथम् ॥ १९॥ बन्धुमत्युपगूढाङ्गं सुप्तमन्धकवृष्णिजम् । ज्वलनप्रमनागस्त्री रात्रौ दिव्या व्यबोधयत् ||२०|| विबुद्धो देहभूषाभाभासिताखिलदिङ्मुखाम् । तां दृष्ट्वा नागचिह्नां स्त्रीं केयमत्रेत्यचिन्तयत् ॥२१॥ आहूतश्च तथा धीरः प्रियालापविदग्धया । अशोकवनिकां नीत्वा नीत्याभाषि विनीतया ||२२|| शृणु त्वं धीर ! विश्रब्धो ममागमनकारणम् । तयेते श्रवणे येन तवामृतरसेन वा ॥ २३ ॥ आसीदमोघविक्रान्तिः समाक्रान्तारिमण्डलः । अमोघदर्शनो नाम्ना नरेन्द्रश्चन्दने वने ॥ २४ ॥ कान्ता चारुमतिश्चारुश्चारुचन्द्रोऽस्य देहजः । नीतिपौरुषसंपन्नो नवयौवनभूषितः ||२५|| रङ्गसेना च गणिका कलागुणगणान्विता । सुता कामपताकास्याः कामस्येव पताकिका ||२६||
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दिया है। इस समाचारसे प्रेरित होकर राजाने, उसके अन्तःपुरकी स्त्रियोंने, तथा नगरवासी लोगोंने इच्छानुसार वसुदेवको देखा ॥१२- १३ ॥ राजपुत्री प्रियंगुसुन्दरीने भी उन्हें किसी तरह देख लिया और देखकर वह उनपर इतनी अनुरक्त हो गयी कि पानीसे विरक्त हो गयी अर्थात् भोजन पानीसे भी उसे अरुचि हो गयी ||१४|| प्रियंगुसुन्दरीने अपनी सखी बन्धुमतीको एकान्तमें बुलाकर उससे पूछा कि हे सखी! तुम पतिको बहुत प्यारी हो, कहो इनकी चतुराई कैसी है ? || १५ || भोलीभाली बन्धुमतीने चतुर वसुदेवकी चेष्टाओंका प्रियंगुसुन्दरीके लिए इस ढंगसे वर्णन किया कि वह एकदम स्वसंवेद्य सुखसे युक्त मोहको प्राप्त हो गयी || १६ || निदान प्रियंगुसुन्दरीने अभिमान छोड़कर द्वारपालको यह संदेश देकर वसुदेवके पास भेजा कि या तो हमारे साथ समागम करो या शीघ्र ही हत्या स्वीकृत करो ||१७|| 'यह दोनों ही काम अनुचित है' यह विचारकर वसुदेव चिन्तामें पड़ गये । अन्तमें वे चतुर तो थे ही इसलिए किसी बहाने उन्होंने कुछ समय तक ठहरनेका समाचार कहला भेजा || १८ || वसुदेव में जिसकी बुद्धि लग रही थी ऐसी प्रियंगुसुन्दरीको उनकी प्राप्तिकी आशा हो
और इस आशा वह रात्रिके समय शय्या पर अपने मनोरथको पूर्ण हुआ हो मानने लगी ||१९|| एक दिन रात्रिके समय कुमार वसुदेव बन्धुमतीका गाढ़ आलिंगन कर सो रहे थे कि एक ज्वलनप्रभा नामकी दिव्य नागकन्याने आकर उन्हें जगा दिया ||२०|| कुमार जाग गये और शरीर तथा आभूषणोंकी कान्तिसे जिसने समस्त दिशाओंको प्रकाशित कर दिया था तथा जिसके शिरपर नागका चिह्न था ऐसी उस स्त्रीको देखकर वे विचार करने लगे कि यह कौन स्त्री यहाँ आयी है ? ॥२१॥ उसी समय प्रिय वार्तालाप करनेमें निपुण नागकन्याने धीर, वीर कुमारको बुलाया और बड़ी विनयके साथ नीतिपूर्वक अशोकवाटिकामें ले जाकर कहा कि हे धीर ! निश्चिन्त होकर मेरे आनेका कारण सुनिए। वह कारण कि जिससे तुम्हारे कान अमृत रसके समान तृप्त हो जावेंगे ||२२-२३॥
हे धीर वीर कुमार ! चन्दनवन नामक नगरमें, अमोघ शक्तिका धारक एवं शत्रुमण्डलको वश करनेवाला अमोघदर्शन नामका राजा था || २४|| उसकी चारुमति नामकी स्त्री थी और दोनोंके नीति तथा पुरुषार्थंसे युक्त नवयौवनसे सुशोभित चारुचन्द्र नामका पुत्र था || २५ || उसी नगरमें कला और गुणोंके समूहसे सहित एक रंगसेना नामकी वेश्या थी और उसकी कामपताका १. तस्या म । २. नागश्री म. । ३ वनितां म
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