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हरिवंशपुराणे
गृहाण गृहिणीत्यक्तमेणीपुत्राख्यमेतकम् । इत्युक्तेन तु तेनोक्तमपुत्रस्य कुतः सुतः ||५३ ॥ कथं वा तापसि ! प्राप्तो दारकोऽयं त्वया वद । वृत्तं मया समस्तं तत्सामिज्ञानं ततोऽकथि ॥ ५४ ॥ देवीस्वं च निजं येन स राजात्मजमग्रहीत् । वर्धमानस्य तस्याहं पुत्रस्नेहेन मोहिना ॥५५॥ जातानुपालिनी नित्यं राज्ञश्चेप्सितदायिनी । एणीपुत्रमसौ राजा स्वराज्ये न्यस्य पण्डितः ॥ ५६ ॥ प्रव्रज्य मुनिमार्गस्थः स्वर्गलोकमवाप्तवान् । जाता च तनया पश्चादेणीपुत्रस्य रूपिणी ॥ ५७ ॥ प्रियङ्गुसुन्दरीनाम्ना प्रियङ्गुश्यामवर्तिनी । स्वयंवरविधौ धीरा प्रत्याख्यातवती च सा ||१८|| भूमौ राजसुतान् काम सौख्य भोगविरागिणी । अद्राक्षीद् बन्धुमत्यामा त्वां सा राजगृहे यदा ॥ ५९ ॥ ततः परमधत्ताङ्गमनङ्गशरशल्यितम् । तद् विधत्स्व तथा वीर ! वचनान्मम संगमम् || ६० ॥ अदत्तेति न चाशङ्क्यं तुभ्यं दत्ता मया हि सा । अस्य राजकुलस्याहं प्रमाणं कार्यंवस्तुनि ||६१ ॥
तो मया वितीर्णेयं वितीर्णा पितृबान्धवैः । समागमस्तु वामस्तु देवतासुगृहे ततः ॥६२॥ 'श्वस्तम्यां कृतसंकेतो रजन्यां सुविनिश्चितः । अमोघदर्शनं देव ! देवतानामतो भवान् ||६३॥ वरिस्वा वरमादत्स्व यत् किंचिदिह वाञ्छितम् । इत्युक्तेनैव सावाचि वाचा विनयपूर्वया ||६४ ॥ कृतस्मरणया देवि ! स्मर्तव्योऽमोघसस्मिते । एवमुक्ता च तेनासावेवमस्त्विति देवता ॥६५॥
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परम नीतिज्ञ था उसे देखकर मैंने कहा कि हे राजेन्द्र ! यह राजाओंके लक्षणोंसे युक्त आपका पुत्र है || २ || यह आपकी मृत स्त्री द्वारा । छोड़ा गया है और एणीपुत्र इसका नाम है । इसे आप ग्रहण कीजिए । मेरे इस प्रकार कहनेपर राजा शीलायुधने कहा कि मैं तो पुत्रहीन हूँ । मेरे पुत्र कहाँ से आया ? ||५३ || हे तापसि ! ठीक-ठीक बता यह पुत्र तुझे कैसे प्राप्त हुआ है ? राजाके इस प्रकार पूछने पर मैंने अभिज्ञान-परिचायक घटनाओं के साथ-साथ वह सब वृत्तान्त कह ' दिया || ५४ || और यह भी कह दिया कि मैं मरकर देवी हुई हूँ । मेरे इस कथनपर विश्वास कर राजा शीलायुधने वह पुत्र ले लिया । पुत्र धीरे-धीरे बढ़ने लगा और मैं मोहयुक्त पुत्रस्नेहके कारण उसकी निरन्तर रक्षा करने लगी । राजा शीलायुधकी जो इच्छा होती थी उसकी मैं तत्काल पूर्ति कर देती थी । कदाचित् परम विवेकी राजा शीलायुध, उस एणीपुत्रको अपने राज्यपर पदारूढ़ कर दीक्षा ले मुनि हो गया और मरकर स्वर्गलोकको प्राप्त हुआ । पश्चात् राजा एणीपुत्रके प्रियंगुपुष्पके समान श्यामवर्ण, अतिशय रूपवती, प्रियंगुसुन्दरी नामकी पुत्री हुई । राजा एणीपुत्रने उसका स्वयंवर किया परन्तु कामभोगसे विरक्त उस धैर्यशालिनीने पृथिवीतल के समस्त राजकुमारोंका निराकरण कर दिया अर्थात् किसीके साथ विवाह करना स्वीकृत नहीं किया । तदनन्तर जिस दिनसे उसने राजमहल में बन्धुमती के साथ आपको देखा है उसी दिन से वह कामके बाणोंसे अत्यन्त सशल्य शरीरको धारण कर रही है इसलिए हे वीर ! मेरे कहने से तू उसके साथ समागम कर ।।५५-६०।। वह कन्या अदत्ता है किसीके द्वारा दी नहीं गयी है-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए क्योंकि मैंने तेरे लिए वह कन्या दी है । इस राजकुलके करने योग्य कार्योंमें मैं प्रमाणभूत हूँ अर्थात् समस्त कार्य मेरी ही सम्मतिसे होते हैं || ६१ || इसलिए मैंने तुझे यह कन्या दी मानो इसके पिता और भाइयोंने ही दी है । अतः कामदेवके मन्दिर में तुम दोनोंका समागम हो और इसके लिए कलकी रातका संकेत निश्चित किया गया है । हे देव ! देवताओंका दर्शन कभी व्यर्थ नहीं जाता इसलिए आप मुझसे वर माँगकर इस संसारमें जो कुछ भी आपको इष्ट हो वह प्राप्त करो । नागकुमारीके इस प्रकार कहने पर वसुदेवने विनयपूर्णं वचनों द्वारा उससे कहा कि हे अमोघ मुस्कानको धारण करनेवाली देवि ! मैं यही वर चाहता हूँ कि जब मैं आपका स्मरण करूँ तब आप मेरा ध्यान रखें । वसुदेव के इस प्रकार कहनेपर उसने 'एवमस्तु' कहा ||६२ - ६५।। १. मोहिनी म । २. युवयोः । ३. आगामिन्याम् । ४. संमिते म. ।
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