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एकोनत्रिंशः सर्गः अन्तर्धान मिता सोऽपि निजवासमुपागमत् । दैवतोक्तविधानेन देवताया गृहे ततः ॥६६॥ प्रियङ्गसुन्दरी शौरी रहसि प्रत्यपद्यत । सा गन्धर्व विवाहाप्ता 'विहसन्मुखपङ्कजा ।।६७।। रमिता यदुसूर्येण पमिनीव तदा बभौ । प्रियङ्गुसुन्दरीसमन्यहान्यस्य बहून्यगुः ॥६॥ अन्योन्यप्रेमबद्धस्य मिथुनस्य रहस्यतः । कृतं देवतया योगं राज्ञा ज्ञात्वानुरूपयोः ॥६९।। तोषीलोकप्रकाशार्थ तद्विवाहमकारयत् । ततः सर्वस्य लोकस्य विदितो यदुनन्दनः ॥७॥ रेभ प्रियङ्गसुन्दर्या सुन्दर्या सह सुन्दरः । रूपयौवनहारिण्या शच्येव कौशिको यथा ॥७॥
पृथिवीच्छन्दः स राजसुतया तया प्रथमबन्धुमत्यापि च
प्रतीतगुणसंपदा गुणकलाकलापश्रिया। क्रमेण रनिगोचरे रहसि सेव्यमानः पुरी
मिमां जिनगृहाचिंता सुचिरमध्युवासार्चितः ॥७२॥ इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती बन्धुमतीप्रियङ्गसुन्दरीलाभवर्णनो नाम
एकोनत्रिंशः सर्गः ॥२९॥
उक्त वरदान देकर देवी अन्तहित हो गयी और वसुदेव अपने निवास स्थानपर आ गये। तदनन्तर देवीसे कहे अनुसार कुमार वसुदेव एकान्त पाकर कामदेवके मन्दिरमें प्रियंगुसुन्दरीके पास गये । कुमारको देख प्रियंगुसुन्दरीका मुख-कमल खिल उठा और गन्धर्व विवाहसे उन्होंने उसे स्वीकृत किया ॥६६-६७।। उस समय वसुदेवरूपी सूर्यके द्वारा रमणको प्राप्त हुई प्रियंगुसून्दरो कमलिनीके समान सुशोभित हो रही थी। इस प्रकार प्रियंगुसुन्दरीके घरमें वसुदेवके बहुत दिन निकल गये ॥६८|तदनन्तर परस्परके प्रेमसे बँधे हुए इस दम्पतिका यह समागम रहस्यपूर्ण रीतिसे देवीने कराया है-यह जानकर राजा बहुत सन्तुष्ट हुआ और उसने लोकमें प्रकट करनेके लिए उस अनुरूप दम्पतीका विवाह करा दिया। विवाहके पश्चात् सुन्दर वसुदेव सब लोगोंकी जानकारीमें रूप और यौवनके द्वारा मनको हरण करनेवाली सुन्दरी प्रियंगुसुन्दरीके साथ, इन्द्राणीके साथ इन्द्रके समान रमण करने लगे ॥६९-७१।। इस प्रकार जिनको गुणरूपी सम्पदाएं प्रसिद्ध थीं तथा जो गुण और कलाओंके समूहसे लक्ष्मोके समान जान पड़ती थी ऐसी बन्धुमती तथा राजपुत्री प्रियंगुसुन्दरी एकान्त पूर्ण रतिगृहमें क्रमसे जिनकी सेवा करती थीं तथा जो नगरवासियोंके द्वारा अत्यन्त सम्मानको प्राप्त थे ऐसे कुमार वसुदेवने जिन-मन्दिरोंसे सुशोभित इस श्रावस्ती नगरीमें चिरकाल तक निवास किया ॥७२।।
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें बन्धुमती और
प्रियंगुसन्दरीके लाभका वर्णन करनेवाला उनतीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥२९॥
१. गन्धर्वविवाहादिसहसन् म.। २. इन्द्रः 'महेन्द्रगुग्गुलूलूकव्यालग्राहिषु कौशिकः' इत्यमरः ।
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