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त्रिंशः सर्गः
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रक्षिता शत्रमात्राहं पुत्रतर्जनशीलया। प्राणिनी 'प्राणनाथातो मोचनीया लघु स्वया ॥१३॥ अविरामवियोगाया मा कदाचिदिहैव मे । स्याद्विपत्तिरतो वीर ! मोपेक्षिष्ठाः कठोरधीः ॥१४॥ साश्रलोचनयाजनमिति संदिष्टमिष्टया । निवेद्यासीस्कृतार्थाहं कृत्यं पस्यौ स्वयि स्थितम् ॥१५॥ न चागम्यमगस्थानमिति चिन्स्यं स्वया यतः। नेष्ये निमेषमात्रेण तत्र स्वाहं यथेप्सितम् ॥११॥ साभिज्ञानममिज्ञोऽसौ तं निशम्य निशाम्यताम् । प्राह प्रापय सौम्यास्ये सोमश्रीधाम मां दुतम्॥१७॥ सा प्राप्तानुमतिः प्रीता खमुक्षिप्य प्रभावती । विद्याप्रभावसंपन्ना ययौ विद्युदिवोदिता ॥१०॥ अन्योन्याङ्गसमासंगात् संगताङ्गरुहो च तौ । खमुल्लङ्घ्य लघु प्राप्तौ स्वर्णनाभपुरं वरम् ॥१९॥ प्रवेशितस्तया नस्तरसनांशुक्रया गृहम् । अप्रकाशमसौ देवः सोमश्रियमवैक्षत ॥२०॥ प्रलम्बालककाम्लानकपोलवदनश्रियम् । स्वान्तभ्रान्तालिसम्लानिसपमामिव पभिनीम् ॥२१॥ देवदर्शनपर्यन्तवेणीबन्धेन संगताम् । तनुना सेतुबन्धेन धुनीमिव तदन्तिकम् ॥२२॥ ताम्बूलरागनिमुनकिंचिधूसरिताधराम् । म्लानामीषत्परिम्लानपल्लवामिव वल्लरीम् ॥२३॥ अभ्युस्थितां विभुं वीक्ष्य पोनपाण्डुपयोधराम् । तुष्टः सोमश्रियं दृष्ट्वा शारदीमिव स श्रियम् ॥२४॥
आलिलिङ्गतुरन्योऽन्यं गाढं रोमाञ्चकर्कशौ । पुनर्विरहभीरुत्वादेकतामिव तौ गतौ ॥२५॥ कितनी देर तक रहना होगा ? ॥१२॥ पुत्रको डांटनेवाली शत्रुकी माता ही मेरी रक्षा कर रही है इसीलिए अबतक जीवित हूँ। हे प्राणनाथ ! इस शत्रुसे आप मुझे शीघ्र छुड़ाइए ।।१३।। निरन्तर वियोग सहते-सहते कदाचित् मेरी यहींपर मृत्यु न हो जावे इसलिए हे वीर ! कठोर बुद्धि होकर मेरी उपेक्षा न कीजिए ॥१४॥ इस तरह जिसके नेत्र सदा आंसुओंसे युक्त रहते हैं ऐसी सोमश्री द्वारा भेजा हुआ सन्देश सुनाकर मैं कृत-कृत्य हुई हूँ। अब जो कुछ करना हो वह आपपर निर्भर है आप उसके पति हैं ।।१५।। आप यह नहीं सोचिए कि वह पर्वतका स्थान मेरे लिए अगम्य है क्योंकि आपकी इच्छा होते ही मैं निमेष मात्रमें आपको वहां ले चलूँगी ॥१६॥ बुद्धिमान् वसुदेवने अनेक परिचायक चिह्नोंके साथ श्रवण करने योग्य बातको सुनकर उससे कहा कि हे सौम्यवदने ! तुम मुझे शीघ्र ही सोमश्रीके घर पहुंचा दो ॥१७॥ कुमारको अनुमति पाते ही विद्याके प्रभावसे सम्पन्न प्रभावती उन्हें लेकर आकाशमें उस तरह जा उड़ी जिस तरह मानो बिजली ही कौंध उठी हो ॥१८॥ परस्परके अंग-स्पर्शसे जिन्हें रोमांच निकल आये थे ऐसे वे दोनों, आकाशको उल्लंघकर शीघ्र ही स्वर्णनाभपुर नामक उत्तम नगरमें जा पहुंचे ॥१९॥ तदनन्तर जिसका कटिसूत्र और वस्त्र कुछ-कुछ नीचेकी ओर खिसक गया था ऐसी प्रभावतीने गुप्त रीतिसे वसुदेवको सोमश्रोके घर जा उतारा। वहां पहुंचते ही कुमारने सोमश्रीको देखा ॥२०॥ उस समय विरहके कारण सोमश्रीको बुरी हालत थी। चारों ओर लटकते हुए बालोसे उसके विरहपाण्डु मुखकी शोभा मलिन हो गयी थी इसलिए समीपमें भ्रमण करते हए भौरोंसे मलिन-कमलसे यक्त कमलिनीके समान जान पडती थी ।।२१।। वह पतिका दर्शन होनेकी अवधि तक बाँधे हुए वेणी बन्धनसे युक्त थी इसलिए ऐसी जान पड़ती थी मानो पतले पुलसे युक्त नदी हो हो। उसका अधरोष्ठ ताम्बूलकी लालिमासे रहित होनेके कारण कुछ-कुछ मटमैला हो गया था इसलिए वह कुछ कुम्हलाये हुए पल्लवको धारण करनेवाली म्लान लताके समान जान पड़ती थी ॥२२-२३॥ पतिको आया देख जो उठकर खड़ी हो गयी थी तथा जो स्थूल एवं पाण्डुवर्ण पयोधरों-स्तनोंको धारण करनेके कारण स्थूल धवल पयोधरों-मेघोंको धारण करनेवाली शरद् ऋतुकी शोभाके समान जान पड़ती थी ऐसी सोमश्रीको देखकर कुमार वसुदेव बहुत ही सन्तुष्ट हुए ॥२४॥ जिनके शरीर रोमांचोंसे कर्कश हो १. प्राणनाथोऽतो म.। २. नेष्यम् म., ग.। ३. निशाम्य म.। ४. प्रभावतीम् म.। ५. प्रलम्बालसकाम्लान म.। ६. सम्लान क.।
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