________________
हरिवंशपुराणे
प्राविशद् यागदीक्षायै क्षितिपो धर्ममोहितः । तापसाः कौशिकायाश्च तदायाता जटाधराः ॥ २७॥ नृत्यन्या च नृपादेशात् तया कामपताकया । व्यक्तं कामपताकाखं हरन्त्या हृदयं नृणाम् ॥२८॥ शास्त्रकौशलतायुक्तो मूलपत्रफलाशनः । कौशिकः क्षुभितो यत्र तत्रान्यस्य तु का कथा ||२९|| यागकर्मणि निर्वृत्ते सा कन्या राजसूनुना । स्वीकृता तापसा भूयं भक्तं कन्यार्थमागताः ॥३०॥ कौशिकायात्र तैस्तस्यां याचितायां नृपोऽवदत् । कन्या सोढा कुमारेण यातेत्युक्तास्तु ते ययुः ||३१|| सर्पोभूयापि हन्तव्यो मया त्वमपि भूपते । आक्रुश्य कौशिको यातः क्लिशितेनान्तरात्मना ||३२|| अभिषिच्य नृपखस्तो धरित्रीधरणे सुतम् । अव्यक्तगर्भया देव्या सहाभूत्तापसस्तथा ॥३३॥ तापस्यपि सुतां लेभे तानसाश्रमभूषिणीम् । ऋषिदत्ताख्यया ख्यातां भूषितामप्यभिख्यया ॥ ३४ ॥ अणुव्रतानि सा लेभे चारणश्रमणान्तिके । यौवनं च नवं यूनां मनोनयनबन्धनम् ॥३५॥ शान्तायुधसुतः श्रीमान् श्रावस्तीपतिरेकदा । शीलायुध इति ख्यातस्तं यातस्तापसाश्रमम् ॥ ३६ ॥ एकयैव कृतातिथ्यस्तया तापसकन्यया । रुच्याहारैर्मनोहारिसवल्कलकुचश्रिया ॥३७॥ अतिविश्रम्भतः प्रेम तयोरप्रतिरूपयोः । विभेद निजमर्यादां चिरं समनुपालिताम् ||३८|| गतो रहसि निःशङ्कां निःशङ्कस्तामसौ युवा । अरीरमद् यथाकामं कामपाशवशो वशाम् ॥३९॥
३८०
नामकी पुत्री थी जो सचमुच ही कामकी पताकाके समान जान पड़ती थी ||२६|| एक बार धर्मअधर्म विवेकसे रहित राजा अमोघदर्शनने यज्ञदीक्षा के लिए प्रवेश किया। उसी समय जटाओंको धारण करनेवाले कौशिक आदि ऋषि भी आये ||२७|| उस यज्ञोत्सव में राजाकी आज्ञासे कामपताकाने नृत्य किया । ऐसा नृत्य, कि मनुष्योंके हृदयको हरण करती हुई उसने स्पष्ट कर दिया कि मैं यथार्थ में कामकी पताका ही हूँ ॥ २८॥ उस नृत्यको देखकर शास्त्रोंकी निपुणतासे युक्त तथा वृक्षोंके मूल पत्र और फलोंको खानेवाला कौशिक ऋषि भी क्षोभको प्राप्त हो गया तब अन्य - की तो कथा ही क्या थी ? || २९ ॥ यज्ञ कार्यं समाप्त होनेपर राजपुत्र चारुचन्द्रने उस कन्या - कामपताकाको स्वीकृत कर लिया। उसी समय कौशिक ऋषिके शिष्य कुछ तापस राजाको भक्त जान कन्या की याचना करनेके लिए वहाँ आये ||३०|| जब उन्होंने कौशिक ऋषिके लिए कामपताकाकी याचना की तब राजाने कहा कि वह कन्या तो राजकुमारने विवाह ली है । आपलोग जावें । राजाके इस प्रकार कहनेपर वे तापस चले गये ||३१|| कन्याके न मिलनेसे कौशिककी आत्मामें बड़ा संक्लेश उत्पन्न हुआ। वह राजाके पास गया और 'हे राजन् ! तूने मुझे कन्या नहीं दी है इसलिए मैं सर्प बनकर भी तुझे मारूंगा' इस प्रकार आक्रोशपूर्ण वचन कहकर चला आया ||३२|| राजा कौशिक के आक्रोशपूर्णं वचन सुनकर डर गया इसलिए पुत्रका राज्याभिषेककर अव्यक्त गर्भवाली रानी चारुमतिके साथ तापस हो गया ||३३|| कुछ समय बाद तापसी चारुमतिने तपस्वियोंके आश्रमको सुशोभित करनेवाली, एवं अनुपम शोभासे सुशोभित ऋषिदत्ता नामकी कन्याको जन्म दिया ||३४|| कन्या ऋषिदत्ताने एक बार चारण ऋद्धिधारी मुनिराज के समीप अणुव्रत धारण किये । धीरे-धीरे उस कन्याने तरुण पुरुषोंके मन और नेत्रोंको बाँधनेवाला नवयौवन प्राप्त किया ||३५|| एक समय शान्तायुधका पुत्र, लक्ष्मीसे सुशोभित एवं शीलायुध नामसे प्रसिद्ध श्रावस्तीका राजा तपस्वियोंके उस आश्रम में पहुंचा ॥ ३६ ॥ उसे देख अकेली ऋषिदत्ता कन्याने रुचिवर्धक उत्तम आहार देकर उसका अतिथि सत्कार किया । कन्या ऋषिदत्ता सुन्दरी तो थी ही उसपर वल्कलों के कारण उसके स्तनोंकी शोभा और भी अधिक मनोहारिणी हो गयी थी ||३७|| फल यह हुआ कि अनुपम रूपको धारण करनेवाले उन दोनोंके प्रेमने विश्वासकी अधिकतामें चिरकालसे पाली हुई अपनी-अपनी मर्यादा तोड़ दी ||३८|| कामपाशसे बँधा युवा शीलायुध निःशंक १. सा + ऊठा इतिच्छेदः । २. अतिविश्रमतः म. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org