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चतुर्विशः सर्गः तनयस्तस्य सौदासः स मांसरसलालसः । मायूरमासमात्रायाः पितुराज्ञामदापयत् ॥१३॥ प्रत्यहं शिखिना मांसं सूपकारेण संस्कृतम् । भक्षयस्यप्रकाशं तत् प्रासादान्तरवस्थितः ॥१४॥ कदाचित्त हृते मासे मार्जारेण पुरो बहिः । सूपकारो गतोऽपश्यन्मृतं शिशुमुपांशु च ॥१५॥ आनीयादारसुसंस्कृत्य सौदासोऽप्यघसन्मुदा। अपृच्छच्च स तं मांसं कस्येदमिति सादरः ॥१६॥ अशितानि पुरा भद्र ! पिशितानि बहुनि मोः । न शतांशेन तान्यस्य स्पृशन्ति स्म रसान्तरम् ॥१७॥ सत्यं ब्रूहि हितं साधो ! सत्यमस्मन्न ते भयम् । इत्युक्तः सोऽवदत्सर्व नीत्या युक्तः स्वचेष्टितम् ॥१८॥ सौदासोऽपि च तत् श्रुत्वा सूपकारं शशास सः। तुष्टोऽस्मि मर्त्यमांसं मे नित्यमानीयतामिति ॥१९॥ पितर्युपरते तावत्सौदासेऽपि पदस्थिते । सोपायं सूपकारोऽभूदन्वहं शिशुमारकः ॥२०॥ प्रत्येक प्रत्यहं हानिमपत्यानामवेक्ष्य वै । परीक्ष्य भक्षको लोकैराशु देशादपाकृतः ॥२१॥ रन्ध्र व्याघ्र बदापत्य निशि नीत्वा नु मानुषान् । दिवारण्ये चरः कुर्याद् व्यसनोपहतो न किम् ॥२२॥ असाध्यो लोकवित्रासी स एष भवताधुना । प्रापितः साधुना मृत्युमसाधारणशक्तिना ॥२३॥ इत्यावेद्य वयोवृद्धाः सौदासस्य कुचेष्टितम् । वस्त्रमाल्यविभूषायः पूजयन्ति स्म यादवम् ॥२४॥ लेभे च सोऽचलग्रामे सार्थवाहस्य देहजाम् । वेदसामपुरं चामा प्रयातो वनमालया ॥२५॥
राज्यमें उसने अभयकी घोषणा करा रखी थी॥१२॥ उसका एक सौदास नामका पुत्र था। वह मांस खानेका बड़ा लम्पट था इसलिए उसने पितासे मयूरका मांस खानेकी आज्ञा प्राप्त कर ली थी ॥१३॥ प्रतिदिन रसोइया उसे मयूरका मांस तैयार कर देता था और वह उसे महलके भीतर छिपकर खाया करता था॥१४|| किसी एक दिन तैयार मांसको बिल्ली उठा ले गयी जिससे मांसको तलाशमें रसोइया नगरके बाहर गया। वहां उसने एक मरा हआ बालक देखा जिसे वह छिपाकर ले आया और अच्छी तरह तैयार कर उसे सौदासके लिए दे दिया। सौदासने उस मांसको बड़ी प्रसन्नतासे खाया और आदरपूर्वक उस रसोइयासे पूछा कि यह मांस किसका है ? ॥१५-१६।। वह कहने लगा कि हे भद्र ! मैंने पहले बहुत-से मांस खाये हैं पर वे इस मांसके रसके सौंवें भागका भी स्पर्श नहीं करते ॥१७॥ हे भले आदमी ! जो बात सत्य और हितकारी हो वह कहो। यह सच है कि तुम्हें मुझसे कुछ भी भय नहीं है। इस प्रकार कहनेपर नीतिसे युक्त रसोइयाने अपनी सब चेष्टा सौदासके लिए बतला दी ॥१८॥ रसोइयाकी बात सुनकर सोदासने उसकी बहत प्रशंसा की और कहा कि मैं तुम्हारे ऊार बहुत सन्तुष्ट हूँ, तुम प्रतिदिन मेरे लिए मनुष्यका ही मांस लाया करो ॥१९॥
तदनन्तर पिताके मरनेपर सौदास राज्य-सिंहासनपर आरूढ़ हुआ और उसका रसोइया किसी उपायसे प्रतिदिन बच्चोंको मारने लगा ॥२०॥ 'प्रतिदिन एक-एक बच्चेकी हानि होती जा रही है' यह देख नगरवासी लोगोंमें खलबली मच गयी। उन्होंने परीक्षा कर सौदासको शिशु-भक्षक पाया। और उसे शीघ्र ही देशसे बाहर खदेड़ दिया ॥२१॥ अब वह अवसर देख व्याघ्रकी तरह रात्रिमें झपाटा मारकर मनुष्योंको ले जाता है और दिन-भर जंगलमें रहता है सो ठोक ही है क्योंकि व्यसनमें पड़ा मनुष्य क्या नहीं करता है ? ॥२२॥ हे कुमार ! लोगोंको भयभीत करनेवाला यह वही सौदास था। यह हम लोगोंके लिए असाध्य था परन्तु असाधारण शक्तिको धारण करनेवाले आपने उसे आज यमलोक पहुंचा दिया ॥२३॥ इस प्रकार नगरके वयोवृद्ध लोगोंने सौदासको कुचेष्टाओंका वर्णन कर वस्त्र, माला तथा आभूषण आदिसे वसुदेवका खूब सत्कार किया ॥२४॥
तदनन्तर वहाँसे चलकर कुमार वसुदेवने अचलग्रामके सेठकी वनमाला नामक पुत्रीको प्राप्त किया-उसके साथ विवाह किया और वहांसे वनमालाके साथ चलकर वे वेदसामपुर
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