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त्रयोविंशः सर्गः
पृथ्वीच्छन्दः रहस्यकृत वक्षसा घनपयोधरोत्पीडनं
चुचुम्ब सकचग्रहं जघनमाजघानाधरम् । ददंश नृवरो वरः सनखपातमस्या वधू
विवेद मदनातुरा न च तथाविधं बाधनम् ।।१५३।। चचार खचरीसख: खचरलोकलोकाधिकः
स्वरूपगुणसंपदारतिपु दक्षिणो यो युवा । स्वतन्त्रजिनभक्तयारमदतीव सोमश्रिया
पुरे गिरितटामिधे सुमतिचारुयोषित्सखः ।।१५४।।
इति अरिष्टनेमिप्राणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती सोमश्रीलाभवर्णनो नाम
त्रयोविंशः सर्गः ॥२३॥
सुखका क्या वर्णन किया जाये ? ||१५२।। कुमार वसुदेवने एकान्त स्थानमें अपने वक्षःस्थलसे उसके स्थूल स्तनोंका पोडन किया, केश खींचते हुए चुम्बन किया, नखक्षत करते हुए नितम्बका आस्फालन किया और अधरको ईसा परन्तु कामातुर सोमश्रीने उस प्रकारको बाधाको कुछ भी नहीं जाना ॥१५३॥ जो अपने सौन्दर्य तथा गुणरूपी सम्पदाके द्वारा विद्याधरोंसे भी श्रेष्ठ थे, जो विद्याधरियोंके साथ भ्रमण करते थे. जो रतिक्रिया में अत्यन्त कुशल एवं युवा थे और जो सुबुद्धिरूपी सुन्दर स्त्रीके सखा थे, ऐसे कुमार वसुदेवने गिरितट नामक नगरमें स्वतन्त्र एवं जिनभक्त रमणी सोमश्रीके साथ अत्यधिक क्रीड़ा की ॥१५४।। इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें सोमश्रीके
लाभका वर्णन करनेवाला तेईसवाँ सर्ग समाप्त हा ॥२३॥
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