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पञ्चविंशः सर्गः
शस्त्रजालकरच्छन्नचण्डांशुकरयोरभूत् । तूर्यादिरवतोषिण्योः संघातो व्योम्नि सेनयोः ॥ ५६ ॥ आकर्णाकृष्टको दण्डमण्डलोन्मुक्त सायकैः । अभिद्यत नृणां बाह्या नान्तःस्था हृदयस्थली ॥५७॥ अच्छिद्यन्त शिरांस्प्रचक्रधाराभिराहवे । शशिशङ्खविशुद्धानि न यशांसि मनस्विनाम् ॥ ५८ ॥ पपात सुमटः खड्गधारापातेन मूर्च्छितः । अनेकरणनियू ढप्रतापस्तु न संयुगे ॥ ५९ ॥ घोरमुद्गरघातेन चक्षुर्बभ्राम मानिनः । विपक्षस्य जयोद्ग्रासघस्मरं तु न मानसम् ॥६०॥ गजाश्त्ररथपादातं यथास्त्रं सुमनोरथम् । युयुधे युधि धैर्येण शौर्येण च विशेषितम् ॥ ६१॥ शस्त्रार्थैः प्राकृतैर्योधाः कृतयुद्ध महोत्सवाः । युद्ध श्रमविनिर्मुक्ताश्विरं युयुधिरेऽधिकम् ॥६२॥ सौकाङ्गागारिनीलकण्ठपुरोगमाः । पुरस्कृत्य जिताश्चण्डाश्चण्ड वेगेन वेगिना ॥६३॥ जवनाश्वरथारूढं नानाशस्त्रास्त्र भीषणम् । अभेदधिमुखं शौरिं प्राप्तस्त्रिशिखरोऽभितः ॥ ६४ ॥ प्राकृतास्त्रैस्तयोरासीत्प्रथमं प्रधनं महत् । परस्परशरासारख्याप्ताशान्तान्तरिक्षयोः ॥६५॥ क्षिप्रं चिक्षेप चाग्नेयमस्त्रं शौरिर्धनुर्धरः । रौद्रज्वालाकुलेनाशु तेनादाहि रिपोर्बलम् ॥ ६६ ॥ अस्त्रेण वारुणेनारिर्विध्याप्याग्नेयमाहवे । मोहनेन महास्त्रेण शौरिसैन्यं व्यमोहयत् ॥ ६७ ॥ चित्तप्रसादनेनाशु मोहनास्त्रमपास्य सः । शौरिर्व्यनाशयद् व्योम्ति वायव्येन च वारुणम् || ६८॥ क्षिप्रं क्षिप्रं निरस्यासावस्त्रमस्त्रेण वैरिणः । माहेन्द्रास्त्रेण चिच्छेद शिरस्तस्य यदूत्तमः ॥ ६९ ॥ तस्मिन्नस्तमिते दीप्ते क्षिप्रं शेषा नभश्वराः । नेशुराशाः परित्यज्य रखावित्र करोत्कराः ॥७०॥
अपना सन्तोष प्रकट कर रही थीं ऐसो दोनों सेनाओंकी आकाशमें मुठभेड़ हुई || ५६ || कानों तक खींचे 'हुए धनुष-मण्डलोंसे छूटे बाणोंसे मनुष्यों के बाह्य हृदय तो खण्डित हुए परन्तु अन्तर्मन हृदय नहीं || ५७ ॥ युद्ध में चक्रों की तीक्ष्ण धाराओंसे तेजस्वी मनुष्योंके शिर तो कटे थे परन्तु चन्द्रमा और शंखके समान उज्ज्वल यश नहीं ||५८ || युद्ध में तलवारकी धारके पड़ने से मूच्छित हुआ Da तो गिरा था, परन्तु अनेक युद्धों में वृद्धिको प्राप्त हुआ प्रताप नहीं ||५९ ॥ मुद्गरकी भयंकर चोटसे अभिमानीका नेत्र तो घूमने लगा था परन्तु शत्रुकी विजयरूपी उत्कृष्ट ग्रासको खानेवाला मन नहीं ||३०|| युद्धस्थलमें धीरता और शूरता से विशेषताको प्राप्त हुई हाथी, घोड़ा, रथ और पयादोंकी - चतुरंगिणी सेना, अपनो-अपनी इच्छानुसार यथायोग्य रीतिसे युद्ध कर रही थी ||६१|| जो योद्धा पहले साधारण शस्त्रोंसे युद्धका महोत्सव मनाया करते थे वे भी उस समय युद्धजन्य परिश्रमसे रहित हो चिरकाल तक अधिक युद्ध करते रहे || ६२॥ सौपक, अंगार, वेगारि तथा नीलकण्ठ आदि शत्रुपक्षके जो प्रमुख शूरवीर थे वेगशाली चण्डवेगने सामना कर उन सबको जीत लिया ॥ ६३ ॥ तदनन्तर जो वेगशाली घोड़ों के रथपर आरूढ़ थे, नाना शस्त्र और अस्त्रोंसे भयंकर थे, तथा जिनके आगे रथ हाँकनेके लिए दधिमुख विद्यमान था ऐसे वसुदेव के सामने त्रिशिखर आया || ६४ || परस्परको बाण वर्षासे जिन्होंने दिशाओंके अन्त तथा आकाशको व्याप्त कर रखा था ऐसे उन दोनों का पहले तो साधारण शस्त्रोंसे महायुद्ध हुआ किन्तु पीछे धनुर्धारी वसुदेवने शीघ्र ही आग्नेय अस्त्र छोड़ा जिसकी भयंकर ज्वालाओंसे शत्रुकी सेना तत्काल जलने लगी ।।६५-६६।। उधर शत्रुने वारुणास्त्र के द्वारा आग्नेयास्त्रको बुझाकर मोहन नामक महा अस्त्रसे वसुदेवकी सेनाको विमोहित कर दिया || ६७ || इधर वसुदेवने चित्तप्रसादन नामक अस्त्रसे मोहनास्त्रको दूर हटा दिया और आकाशमें वायव्य अस्त्र चलाकर वारुणास्त्रको नष्ट कर दिया || ६८ || इस प्रकार अपने प्रतिद्वन्द्वी शस्त्रसे शत्रुके शस्त्रको शीघ्रातिशीघ्र नष्ट कर वसुदेवने माहेन्द्रास्त्र के द्वारा शत्रुको काट डाला ||६९ || जिस प्रकार सूर्यके अस्त होनेपर किरणोंके समूह दिशाएँ छोड़कर १. युद्धभ्रम - म. । २. शौर्यकांगारि म ।
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