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हरिवंशपुराणे
पतिं वेगवती दृष्ट्वा रुरोद विरहाकुला । परिष्वज्य स तां मेने स्वपराङ्गसुखासिकाम् ॥४०॥ ततस्तेन प्रिया पृष्टा तस्मै सर्वं न्यवेदयत् । हृते मर्त्तरि यद्वृत्तं सुखदुःखं निजास्पदे ॥४१॥ द्वयोरन्वेषितः श्रेण्योर्यथारण्यपुरादिषु । पर्यटन्त्या चिरं क्षेत्रं भारताख्यमशेषतः ॥ ४२ ॥ पाइ मदनवेगायाः पत्युर्दर्शनमेतया । वियोगमपि काङ्क्षत्या स्वस्याः स्थानमलक्षितम् ॥४३॥ श्रित्वा मदनवेगाया रूपं त्रिशिखभार्यया । सूर्पणख्या हृतिं चाख्यत्खमुत्क्षिप्य जिघांसया ॥४४॥ अमुतोऽधित्यकातस्त्वमापत्य विष्टतो मया । तीर्थं पञ्चनदं चात्रिं होमन्तमधितिष्ठसि ॥४५॥ इत्यावेदितवृत्तान्तः स तया चन्द्रवक्त्रया । रेमे तत्र धुनीधीरध्वानहारिषु सानुषु ॥४६॥ सोsटन् यदृच्छयाद्राक्षीनागपाशवशां दृढम् । धन्यां कन्यां यथा वन्यां नागपाशवशां वशाम् ॥४७॥ तदार्द्रहृदये नद्वाँ तामुद्यन्मुखकान्तिकाम् । व्यपाशयदसौ पाशात्पापपाशाद् यथा यतिः ॥४८॥ मुक्तबन्धा च नत्वा सा तमचिन्तितबान्धवम् । प्रसादात्तव मे नाथ ! सिद्धा विद्येत्यभाषत ॥ ४९ ॥ शृणु स्वं दक्षिणश्रेण्यां पुरे गगनवल्लभे । विद्युदंष्ट्रान्दयोत्थाहं बालचन्द्रा नृपात्मजा ॥५०॥ साधयन्ती महाविद्यां नयां विद्याभृतारिणा । नागगशैरहं बद्धा मोचिता भवता विभो ॥५१॥ अन्ववायेऽस्मदीयेऽन्या कन्या केतुमतीत्यभूत् । मोचिताहमिवाकाण्डे पुण्डरीकार्धचक्रिणा ॥५२॥
और भाथड़ीसे खींचकर बाहर निकाला ||३९|| पतिको देख वेगवती विरहसे आकुल हो रोने लगी और वसुदेवने भी उसका आलिंगन कर उसे स्वपरके शरीरके लिए सुख देनेवाली माना ||४०|| तदनन्तर वसुदेवके द्वारा पूछी प्रिया वेगवतीने पतिके हरे जानेपर अपने घर जो सुख-दुख उठाया था वह सब उनके लिए कह सुनाया || ४१|| उसने कहा कि मैंने आपको विजयाधंकी दोनों श्रेणियों में खोजा, अनेक वन और नगरोंमें देखा तथा समस्त भरत क्षेत्रमें चिरकाल तक भ्रमण किया परन्तु आपको प्राप्त न कर सकी ||४२|| बहुत घूमने-फिरनेके बाद मैंने मदनवेगाके पास आपको देखा । सो देखकर यह विचार किया कि यहाँ रहते हुए भले ही आपके साथ वियोग रहे पर आपके दर्शन तो पाती रहूँगी । इसी विचारसे मैंने वहाँ अलक्षित रूपसे रहने की इच्छा की परन्तु त्रिशिखरकी भार्या शूर्पणखी मदनवेगाका रूप धरकर आपके पास आयी और मारने की इच्छासे हरकर आपको आकाशमें ले गयी ||४३-४४ || उधर उस पर्वतको चोटोसे आप नीचे गिराये जा रहे थे कि मैंने बीचमें ही लपककर आपको पकड़ लिया। इस समय आप पंचनद तीर्थं और हीमन्त नामक पर्वतपर विराजमान हैं || ४५ || इस प्रकार चन्द्रमुखी वेगवतीसे सब समाचार जानकर वसुदेव, नदियोंके गम्भीर शब्दसे सुन्दर हीमन्त पर्वतकी अधित्यकाओंपर क्रीड़ा करने लगे ||४६ || एक दिन कुमार वसुदेव अपनी इच्छानुसार वहाँ घूम रहे थे कि उन्होंने नागपाशसे बँधी हुई वनकी हतिनीके समान, नागपाशसे मजबूत बँधी हुई एक भाग्यशालिनी सुन्दर कन्याको देखा || ४७|| उसे देखते ही कुमारका हृदय दयासे आर्द्र हो गया इसलिए उन्होंने जिस प्रकार मुनि संसारके प्राणियों को पापरूपी पाशसे मुक्त कर देते हैं उसी प्रकार मुखकी फैलती हुई कान्तिसे युक्त उस बन्धनबद्ध कन्याको बन्धन से मुक्त कर दिया || ४८ ॥ बन्धन से छूटते ही उस कन्याने अतर्कित बन्धु - वसुदेवको नमस्कार किया और कहा कि हे नाथ! आपके प्रसादसे मेरी विद्या सिद्ध हो गयी है || ४९ ॥ सुनिए, मैं दक्षिण श्रेणीपर स्थित गगनवल्लभ नगरकी रहनेवाली राजकन्या हूँ, मेरा नाम बालचन्द्रा है ओर में विद्युदंष्ट्र के वंश में उत्पन्न हुई हूँ ||५० ॥ में नदी में बैठकर महाविद्या सिद्ध कर रही थी कि एक शत्रु विद्याधरने मुझे नागपाशसे बांध दिया और हे प्रभो ! आपने मुझे उस बन्धनसे मुक्त किया है ||५१ || हमारे वंश में पहले भी एक केतुमती
१. करिणीम् । २. नद्याम् म । ३. भविता म. ।
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