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हरिवंशपुराणे
तस्याश्चरणमूले वः पुरश्चरणकारिणाम् । कालेन महता क्लेशाद्विद्याः सिद्धयन्तु नान्यथा ॥ १३० ॥ इतः प्रभृति च स्त्रीणां विद्युष्ट्रस्य संततौ । प्रज्ञप्तिरोहिणीगौर्यः सिद्ध्यन्तु न नृणां तु ताः ॥ १३१ ॥ इत्युक्तमनुमन्यैते खगाः प्रणतिपूर्वकम् । विद्याः स्वा लेभिरे भूयो यथास्वं च ययुः सुराः ॥ १३२॥ खेचराः स्थापयांचक्रुस्तां यतेः प्रतियातनाम् । नानोपकरणां तत्र हेमरत्नमयीं गिरौ ॥ १३३ ॥ हृतविद्या यतस्तत्र होमन्तस्तस्थुरानताः । विद्याधरास्ततः शैलं होमन्तं तं जना जगुः ॥१३४॥ भूभृतो रनवीर्यस्य मथुरायां पृथुश्रियः । स मेरुर्मेघमालायां लान्तवेन्द्रोऽभवत्सुतः || १३५|| अमितप्रमया तस्य प्रिययालाभि भूपतेः । धरणेन्द्रचरः पुत्रो मन्दरश्चन्द्र सुन्दरः ।। १३६ । युवानौ तौ ततो भुक्त्वा कामभोगान् यथेप्सितान् । श्रेयसो जिनचन्द्रस्य शिष्यतामुपजग्मतुः ॥ १३७॥ स मे निष्कम्पः प्राप्य केवलसंपदम् । निर्ववौ तु गणेन्द्रत्वं मन्दरो मन्दरोपमः ॥ १३८ ॥
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रथोद्धतावृत्तम्
संजयन्तचरितं जगत्त्रये सुप्रसिद्धमतिभक्तिमावतः ।
संभवन्तु भुवि मव्यजन्तवः संस्मरन्तु जिनतां यियासवः ॥१३९॥
इत्यरिष्टनेमिपुराण संग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतो संजयन्तपुराणवर्णनो नाम सप्तविंशः सर्गः ॥ २७॥ O
संजयन्त स्वामीको पाँच सौ धनुष ऊँची प्रतिमा स्थापित करो। उसी प्रतिमाके पादमूलमें उनकी सेवा करते हुए तुम लोगोंको बहुत समय बाद बड़े कष्टसे विद्याएँ सिद्ध होंगी अन्य प्रकारसे नहीं ||१२८ - १३० ।। आजसे विद्युद्दंष्ट्र के वंश में केवल स्त्रियोंको ही प्रज्ञप्ति, रोहिणी और गौरी नामकी विद्याएँ सिद्ध हो सकेंगी पुरुषों को नहीं ॥ १३१|| इस प्रकार धरणेन्द्रकी आज्ञाको विद्याधरोंने नमस्कारपूर्वक स्वीकार किया तथा यथायोग्य विधिसे अपनी विद्याएं पुनः प्राप्त कीं। यह सब होनेके बाद देव यथास्थान चले गये ||१३२ || विद्याधरोंने धरणेन्द्रकी आज्ञानुसार उस पर्वतपर नाना उपकरणोंसे युक्त एवं सुवर्ण और रत्नोंसे निर्मित संजयन्त स्वामीकी प्रतिमा स्थापित करायो ||१३३ || विद्याओंके हरे जानेसे लज्जित हो नीचा मस्तक किये हुए विद्याधर चूंकि उस पर्वतपर बैठे थे इसलिए लोग उस पर्वतको ह्रीमन्त कहने लगे || १३४|| मथुरा में विशाल लक्ष्मीका धारक रत्नवीर्यं नामका राजा रहता था । उसकी मेघमाला नामकी स्त्री थी, आदित्याभ नामका लान्तवेन्द्र उन्हीं दोनोंके मेरु नामका पुत्र हुआ || १३५|| उसी राजा रत्नवीर्यकी दूसरी स्त्री अमितप्रभा थी, उसके धरणेन्द्रका जीव चन्द्रमाके समान सुन्दर मन्दर नामका पुत्र हुआ || १३६ ।।
तदनन्तर युवा होनेपर दोनोंने इच्छानुसार कामभोगोंका उपभोग किया और उसके बाद दोनों ही, श्री श्रेयान्सनाथ जिनेन्द्रके शिष्य हो गये - दीक्षा लेकर मुनि हो गये ||१३७|| उनमें मेरु पर्वतके समान निष्कम्प मेरु मुनिराज केवलज्ञानरूपी सम्पत्तिको प्राप्त कर मोक्ष चले गये और मन्दरगिरिको उपमाको धारण करनेवाले मन्दर मुनिराज श्रेयान्सनाथ भगवान् के गणधर हो गये ||१३८ || गौतम स्वामी कहते हैं कि इस पृथिवीपर जो भव्य जीव तीर्थंकर पद प्राप्त करना चाहते हैं वे तीनों लोकोंमें अतिशय प्रसिद्ध संजयन्त स्वामीके इस चरितका उत्कट भक्ति-भावसे आदर करें तथा उसीका अच्छी तरह स्मरण करें || १३९ ||
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इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंश पुराणमें संजयन्त पुराणका वर्णन करनेवाला सत्ताईसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ||२७||
१. यातुमिच्छवः ।
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