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हरिवंशपुराणे उद्वापि ततो भारवा संसारं सारवर्जितम् । जातः पापविशेषेण मारणो मत्तवारणः ॥१०४॥ साधुदर्शनयोगेन जातिस्मृतिमुपागतः । निन्दन् मन्दरुचिः कर्म गजोऽयमुपशान्तवान् ॥१०५॥ तदाकर्ण्य करीन्द्रोऽसौ नरेन्द्रश्च यतेर्वचः। मिथ्याकलङ्कमुत्सृज्य जातौ श्रावकतायुजौ ॥१०६॥ पङ्कप्रमाविनिर्यातो नारकोऽप्यमवत्पुनः । मङ्गीदारुणयोाधो नामकर्मातिदारुणः ॥१०॥ वने प्रियङ्गखण्डेऽसौ वज्रायुधमहामुनिम् । व्याधो विव्याध योगस्थं सोऽपि सर्वार्थसिद्धि मैत् ॥१०॥ महातमःप्रमा प्राप्तो मृत्वा व्याधोऽतिदारुणः । दुःखमन्वमवत्सोऽस्यां घोरं मुनिवधोद्भवम् ॥१०९॥ मुस्वा श्रावकधर्मेण रत्नमालाच्युतेऽमरः । जातो रस्नायुधश्चापि तत्रैव सुरसत्तमः ॥११॥ द्वीपे च धातकीखण्डे पूर्वमेरोश्व पश्चिमे । विदेहे गन्धिलादेश राज्ञोऽयोध्यापतेः सुतौ ॥१११॥ अर्हदासस्य तौ देवी सुव्रताजिनदत्तयोः । जातो वीतभयः सीरी चक्री चात्र विभीषणः ॥१२॥ पृथ्वी रत्नप्रभा यातो जीवितान्ते विभीषणः । अनिवृत्तिमुनेस्स्वन्ते कृत्वा वीतमयस्तपः ॥११३॥ जातः स लान्तवेन्द्रोऽहमादित्यामो मयाप्यसौ । नारको बोधितो गत्वा विमीषणचरस्ततः ॥११॥ जम्बूद्वीपविदेहे यो विषयो गन्धमालिनी । तत्र रौप्यगिरौ चारौं चारुखेचरगोचरे ॥११५॥
प्राणी श्रीधर्मणः पूर्वः श्रीदत्तायामजायत । श्रीदामनामधेयोऽसौ मया मेरी प्रबोधितः ॥११॥ खानेका प्रेमी हो चुका था ऐसा विचित्रमति उस वेश्याके साथ इच्छानुसार भोग भोगकर मरा और मरकर सातवें नरक गया ॥१०३।। वहाँसे निकलकर इस असार संसारमें भटकता रहा । अब किसी पाप विशेषके कारण आपका हिंसाशील मदोन्मत्त हाथी हुआ है ।।१०४|| मुनिराजके दर्शनका योग पाकर यह जाति-स्मरणको प्राप्त हआ है और इसीलिए संसारमें मन्दरुचि हो अपने कार्यको निन्दा करता हुआ शान्त हो गया है ।।१०५।। वज्रदत्त मुनिराजके उक्त वचन सुनकर वह मेघनिनाद हाथी और राजा रत्नायुध दोनों ही मिथ्यात्वरूपी कलंकको छोड़ श्रावकके व्रतसे युक्त हो गये ॥१०६॥ श्रीभूति पुरोहितका जीव, जो अजगर पर्यायसे पंकप्रभा पृथिवीमें गया था वह वहांसे निकलकर मंगी और दारुण नामक भील-भीलनीके नाम और कार्य दोनोंसे ही अतिदारुण पुत्र हुआ। भावार्थ-उस पुत्रका नाम अतिदारुण था और उसका काम भी अति दारुण-अत्यन्त कठोर था ॥१०७। एक दिन राजा सिंहसेनके जीव वज्रायुध महामुनि प्रियंगुखण्ड नामक वनमें ध्यानारूढ़ थे कि उस अर्तिदारुण भीलने उन्हें मार डाला। महामुनि मरकर सर्वार्थसिद्धि गये और वह अतिदारुण भील मरकर महातमःप्रभा नामक सातवीं पृथिवीमें गया जहां मुनिवधसे उत्पन्न घोर दुःख उसे भोगना पड़ा ॥१०८-१०९।। रत्नमाला, मरकर श्रावक धर्मके प्रभावसे अच्युत स्वर्गमें देव हुई तथा रत्नायुध भी उसी स्वर्गमें उत्तम देव हुआ ॥११०॥ धातकोखण्ड द्वीपमें पूर्व मेरुके पश्चिम विदेहमें एक गन्धिला नामका देश है। उसकी अयोध्या नगरीमें राजा अर्हद्दास राज्य करते थे। उनकी सुव्रता और जिनदत्ता नामको दो रानियाँ थीं। रत्नमाला और रत्नायुधके जीव जो अच्युत स्वर्गमें देव हुए थे वहाँसे च्युत हो उन्हीं दोनों रानियोंके क्रमसे वीतभय नामक बलभद्र और विभीषण नामक नारायण हुए ॥१११-११२॥ इनमें विभीषण तो आयुका अन्त होनेपर रत्नप्रभा नामक पहली पृथिवीमें उत्पन्न हुआ और वीतभय अनिवृत्ति मुनिके समीप तप कर आदित्याभ नामका लान्तवेन्द्र हुआ। वह लान्तवेन्द्र मैं ही हूँ। मैंने रत्नप्रभा पृथिवीमें जाकर विभीषणके जीव नारकीको अच्छी तरह समझाया ॥११३-११४।। तदनन्तर इसो जम्बू द्वीपके विदेह क्षेत्रमें जो गन्धमालिनी नामका देश है उसमें विद्याधरोंके मनोहर-मनोहर निवासोंसे युक्त एक अतिशय सुन्दर विजयाध पर्वत है। उसी विजयार्धपर श्रीधर्म राजा और श्रीदत्ता नामकी रानी रहती थी। विभीषणका जीव नारकी, १. अगच्छत् । २. विजयार्धपर्वते । ३. सुन्दरे । ४. गोचरः म., ग. ।
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