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हरिवंशपुराणे सूर्यप्रमसुरश्च्युत्वा जम्बूद्वीपस्य भारते । वैताब्यदक्षिणश्रेण्यां धरणीतिलके पुरे ॥७॥ भभृतोऽतिबलस्थामस्सम्यक्त्वच्युतिदोषतः । सुलक्षणमहादेव्यां श्रीधराख्या शरीरजा ॥७८॥ अलकापतये दत्ता सा सुदर्शनभूभुजे । स वैडूर्यविमानेशस्तस्यां जाता यशोधरा ॥७९॥ दत्तायामुत्तरश्रेण्यां प्रभाकरपुरेशिने । सूर्यावर्ताय जातोऽस्या सुतोऽसौ श्रीधरोऽमरः ॥८॥ तस्मै तु रश्मिवेगाय राज्यं दत्वा पिता ततः । मुनिचन्द्रसमीपेऽसौ मोक्षार्थी तपसि स्थितः ॥८१॥ गुणवत्यार्यिकापाश्व श्रीधरा सयशोधरा । सम्यग्दर्शनसंशुद्धा प्रवज्यां प्रत्यपद्यत ||८२॥ रश्मिवेगोऽन्यदा यातः सिद्धकूटं ववन्दिषुः । हरिचन्द्रमुनेस्तत्र धर्म श्रुत्वामवद्यतिः ।।८३।। काञ्चनाख्यगुहायां तं स्वाध्यायध्वनिपावनम् । आयें ते वन्दितुं याते रश्मिवेगं महामुनिम् ।।८।। बालुकाप्रभभमेर्यो निर्यातो नारकश्चिरम् । स संसृत्य गुहायां हि जातः सोऽजगरोऽत्र तु ॥८५॥ कायोत्सर्गस्थितं साधुमुपसर्गनिरीक्षणात् । आर्ये च ते सप्रर्यादे सोऽगिलद्विपुलोदरः ।।८६॥ रश्मिवेगो मृतः कल्पे कापिष्टे श्रेष्ठधीरभूत् । अर्कप्रमस्तथात्रायें विमाने रुचके सुरौ ।।८७॥ महाशत्रुरसौ मृत्वा रौद्रध्यानदुराशयः । पङ्कप्रभां भुवं प्राप्तः पापपङ्ककलङ्कितः ॥८॥ प्रीतिकरविमानेशः सिंहवन्द्रचरइच्युतः । अपराजितसुन्दयोः पुत्रश्चक्रपुरेऽजनि ॥८॥ चक्रायुधाभिधानस्य चित्रमालास्य मामिनी । तस्यामर्कप्रभश्च्युत्वा जातो वज्रायुधः सुतः ॥१०॥
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आराधनाओंकी आराधना कर प्रीतिकर नामक ग्रैवेयकमें अहमिन्द्र हुए ॥७६|| रामदत्ताका जीव जो सूर्यप्रभ देव हुआ था वहाँ उसका सम्यग्दर्शन छूट गया था इसलिए आयु पूर्ण होनेपर वहाँसे च्युत हो वह विजयार्ध पर्वतकी दक्षिण श्रेणीपर जो धरणीतिलक नामका नगर है उसके राजा अतिबलकी सुलक्षणा नामक महादेवीके श्रीधरा नामको पुत्री हुआ ||७७-७८|| श्रीधरा, अलका नगरीके स्वामी राजा सुदर्शनको दी गयी और उसके पूर्णचन्द्रका जीव जो वैडूर्यप्रभ विमानका स्वामी था वहांसे चयकर यशोधरा नामकी पुत्री हुआ ।।७९|| यशोधरा, उत्तर श्रेणीपर स्थित प्रभाकरपुरके स्वामी राजा सर्यावर्तके लिए दी गयी और उसके राजा सिंहसेनका जीव जो श्रीधर देव हुआ था वह वहाँसे चयकर रश्मिवेग नामका पुत्र हुआ ||८०।। तदनन्तर जब राजा सूर्यावर्त मोक्षकी अभिलाषासे उस रश्मिवेग पूत्रके लिए राज्य देकर मुनिचन्द्र गुरुके समीप तप करने लगा तब श्रीधरा और यशोधराने भी सम्यग्दर्शनसे शुद्ध हो गुणवती आर्यिकाके पास दीक्षा ले ली ।।८१-८२।। एक समय रश्मिवेग वन्दना करनेकी इच्छासे सिद्धकूट गया था कि वहां हरिचन्द्र मुनिसे धर्म श्रवण कर मुनि हो गया ॥८३॥ एक दिन महामुनि रश्मिवेग, कांचन नामक गुहामें स्वाध्याय करते हुए विराजमान थे कि श्रीधरा और यशोधरा नामकी आयिकाएं उनकी वन्दनाके लिए वहां गयीं ।।८४।। श्रीभूति पुरोहितका जीव जो बालुकाप्रभा पृथिवीमें नारको हुआ था वह चिरकालके बाद वहाँसे निकलकर तथा संसारमें परिभ्रमण कर उसी गुहामें अजगर हुआ था ।।८५।। उपसर्ग आया देख मुनि रश्मिवेग कायोत्सर्ग में स्थित हो गये और दोनों आयिकाओंने भी सावधिक संन्यास ले लिया। विशाल उदरका धारक वह अजगर उन तीनोंको निगल गया ॥८६|| रश्मिवेग मरकर कापिष्ठ स्वर्गमें उत्तम बद्धिके धारक अर्कप्रभ देव हए और दोनों आयिकाएँ भी उसी स्वर्गके रुचक विमानमें देव हुई ॥८७॥ जिसका हृदय रौद्रध्यानसे दूषित था ऐसा महाशत्रु अजगर पापरूपी पंकसे कलंकित हो मरकर पंकप्रभा नामक चौथी पृथिवीमें उत्पन्न हुआ ||८८|सिंहचन्द्रका जीव जो प्रीतिकर विमानका स्वामी था वह वहाँसे च्युत हो चक्रपुर नामक नगरके राजा अपराजित और रानी सुन्दरीके चक्रायुध नामका पुत्र हुआ। चक्रायुधकी स्त्री चित्रमाला थी और उसके मुनि रश्मिवेगका जोव ( रानी रामदत्ताका पति राजा सिंहसेनका १. जातः म.। २. वन्दितुमिच्छुः ।
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