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हरिवंशपुराणे उपसंहर हे दुष्ट ! स्वविसृष्टं विषं लघु । नोपसंहर्तुमिच्छा चेत्प्रविशाशु हुताशनम् ॥५१।। इत्युक्तो नोपसंहृत्य विषं विषधरो रुषा । ज्वलत्कृशानुमाविश्य मृत्वाभच्चमरी मृगी ॥५२॥ सिंहसेनो मृतो जातः स हस्ती सल्लकीवने । शाखामृगस्तु धम्मिल्लः का वा मिथ्यादृशा गतिः ॥५३॥ रामदत्तासुतौ राजयुवराजौ नयान्वितौ । शशासतुरिलां वेलावलयावधिका विभू ॥५४॥ पोदने पूर्णचन्द्रो यो या हिरण्यवती च तौ । पितरौ रामदत्ताया जिनशासनभावितौ ॥५५।। राहुभद्रमुनेः पावें प्रव्रज्यावधिमैरिपता । दत्तवत्यार्यिकापावें माताधत्तार्यिकाव्रतम् ॥५६।। पूर्णचन्द्र मुनेः श्रुत्वा रामदत्ताम्बिकायिका । प्रवृत्तिं रामदत्ताया गत्वा बोधयतिस्म ताम् ॥५७॥ प्रावजद्रामदत्ता सा संसारमयवेदिनी । राहभद्रगुरोरन्ते सिंहचन्द्रोऽपि बोधितः ॥५॥ पूर्णचन्द्रस्तु राज्यस्थः प्रतापप्रणताहितः । भोगासक्तो बभूवासौ संयक्त्वव्रतवर्जितः ॥५९॥ एकदा रामदत्तार्या सिंहचन्द्रं तावधिम् । पप्रच्छ चारणं नत्वा स्वमातृसुतजन्म सा ॥६॥ स प्राह भरतेऽत्रैध विषये कोसलामिधे । बभूव वर्द्धकिग्रामे विप्रो नाम्ना मृगायणः ॥६॥
ब्राह्मस्य स्वभावेन मधुरा मधुरामिधा । सुता च वारुणी यूनां वारुणीव मदावहा ॥६२॥ काटनेवाला अगन्धन सर्प रह गया बाकी सब चले गये ॥४९-५०॥ गरुडदण्डने उसे ललकारते हुए कहा कि अरे दुष्ट ! अपने द्वारा छोड़े हुए विषको शीघ्र ही खींच और यदि खींचनेकी इच्छा नहीं है तो शीघ्र ही अग्निमें प्रवेश कर ॥५१।। गरुडदण्डके इस प्रकार कहनेपर उस अगन्धन सर्पने क्रोधके कारण विष तो नहीं खींचा पर जलती हुई अग्निमें प्रवेश कर मरण स्वीकार कर लिया और मरकर वह चमरी मृग हुआ ॥५२॥ विषके वेगसे मरकर राजा सल्लकी वनमें हाथी हुआ और जिसे श्रीभूतिके स्थानपर रखा गया था वह धम्मिल्ल मरकर उसी वनमें वानर हुआ सो ठीक ही है क्योंकि मिथ्यादृष्टि जीवोंकी और गति हो ही क्या सकती है ।।५३।। रामदत्ताके सिंहचन्द्र
और पूर्णचन्द्र नामक दोनों नीतिज्ञ एवं सामर्थ्यवान् पुत्र क्रमसे राजा और युवराज बनकर समुद्रान्त पृथिवीका पालन करने लगे ॥५४॥
पोदनपुर नगरमें जो राजा पूर्णचन्द्र और रानी हिरण्यवती थी वे रानी रामदत्ताके मातापिता थे और वे दोनों ही जिनशासनकी भावनासे युक्त थे ॥५५।। एक बार रामदत्ताके पिता पूर्णचन्द्रने राहुभद्र मुनिके समीप दीक्षा ले अवधिज्ञान प्राप्त किया और माता हिरण्यवतीने दत्तवती आर्यिकाके समीप दीक्षा ले आर्यिकाके व्रत धारण कर लिये ॥५६॥ कदाचित् रामदत्ता की माता हिरण्यवती आर्यिकाने अवधिज्ञानी पूर्णचन्द्र मुनिसे रामदत्ताका सब समाचार सुना और जाकर उसे सम्बोधित किया-समझाया ।।५७।। माताके मुखसे उपदेश श्रवण कर रामदत्ता संसारसे भयभीत हो उठी जिससे उसने उसी समय दीक्षा ले ली। हिरण्यवतीने रामदत्ताके पुत्र सिंहचन्द्रको भी समझाया जिससे उसने भी राहभद्र गुरुके समीप दीक्षा ले ली ॥५८|| सिंहचन्द्रके बाद प्रतापके द्वारा शत्रुओंको नम्रीभूत करनेवाला युवराज पूर्णचन्द्र राज्य-सिंहासनपर आरूढ़ हुआ परन्तु वह सम्यग्दर्शन और व्रतसे रहित होनेके कारण भोगोंमें आसक्त हो गया ।।५९|| एक बार आर्यिका रामदत्ताने अवधिज्ञानी एवं चारण ऋद्धिके धारक सिंहचन्द्र मुनिको नमस्कार कर उनसे अपना, अपनी माताका तथा अपने पुत्रोंका पूर्वभव पछा ॥६०॥
इसक उत्तरम मुनिराज कहने लगे कि इसी भरतक्षेत्रके कोसल देशमें एक वर्धकि नामका ग्राम था और उसमें मृगायण नामका एक ब्राह्मण रहता था ।।६१।। ब्राह्मणको ब्राह्मणोका नाम मधुरा था जो न केवल नामसे ही मधुरा थी किन्तु स्वभावसे भी मधुरा थी। उन दोनोंके एक वारुणी नामको पुत्री थी जो तरुण मनुष्योंके लिए वारुणी-मदिराके समान मद उत्पन्न करनेवाली १. वतीत्यसो म.। २. प्रतापेन प्रणताः अहिताः शत्रवो येन सः । ३. मदिरेव ।
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