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सप्तविंशः सर्ग:
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पतिनामाङ्कितां दृष्टा मुद्रिका तान्यदात् प्रिया । वचनाद्रामदत्ताया तं चाप्युपसंहृतम् ॥३९॥ व्यामिश्राण्यपि सदस्नः परकीयैरसौ वणिक । स्वरत्नान्येवमादाय राजपूजामवाप्तवान् ॥४०॥ परस्वहरणप्रीतः सर्वस्वहरणं द्विजः । गोमयादनमप्याप्य मल्लमुष्टिहतो मृतः ॥४१॥ अर्थध्यानाविलचासौ सपोगन्धननामकः । भाण्डागारान्तरे जज्ञे राज्ञो द्रोही हताशकः ॥४२॥ स्थापितोऽन्यः पदे तस्य द्विजो धम्मिल्लसंज्ञकः । मिथ्यावृष्टिरदिष्टार्थ' प्रति प्रायः किलोद्यतः ॥४३॥ पद्मखण्डपुरं गत्वा जैनीमतोऽप्यसो वणिक् । दानी चासीन्निदानी च देत्तापुत्रत्ववाञ्छया ॥४४॥ समित्रदत्तिका तस्य भार्या मृत्वा विरोधिनी । व्याघ्रीभता चखादादौ तं साधोतये गतम् ॥४५॥ सोऽभवद्रामदत्तायाः पुत्रः सस्नेहबन्धनः । सिंहचन्द्र इतीन्द्रत्वमगणय्य निदानतः ॥४६॥ पूर्णचन्द्र इतीन्द्राभः कनीयान् तस्य जातवान् । जातौ च तौ क्षितौ ख्याती सूर्याचन्द्रमसौ यथा ॥४७॥ भाण्डागारप्रविष्टं च सिंहसेनमगन्धनः । दष्टवान् दुष्टसर्पोऽसावेकदा वैरभावतः ॥४८॥ मन्त्रैर्गरुडदण्डेन महागारुडिकेन तु । अगन्धनादयः सर्पास्तदाहूय प्रणोदिताः ॥३९॥ तिष्ठत्वेकोऽपराधी हि शेषा यान्तु यथागतम् । इत्युक्तोऽगन्धनोऽतिष्ठद् यातास्त्वन्ये पृदाकवः ॥५०॥
नहीं कर सको सो ठोक हो है क्योंकि उसके लिए पतिकी आज्ञा ही वैसी थी ॥३८॥ तीसरी बार पतिके नामसे चिह्नित अंगूठो देखकर पुरोहितको खोने वे रत्न दे दिये। उसी समय रानी रामदत्ताको आज्ञानुसार जुआ बन्द कर दिया गया ॥३९॥ यद्यपि राजाने वणिक्के उन रत्नोंको दूसरेके रत्नोंके साथ मिलाकर दिया था तथापि वणिकने अपने हो रत्न पहचानकर उ और इस सचाईके कारण राजासे सम्मानको भी प्राप्त किया ॥४०॥ दूसरेका धन हरण करने में प्रीतिका अनुभव करनेवाले पुरोहितका सब धन छीन लिया गया, उसे गोबर खिलाया गया और मल्लोंके मुक्कोंसे पिटवाया गया जिससे वह मर गया ॥४१।। चूंकि वह धनके आतंध्यानसे कलुषित चित्त होकर मरा था इसलिए राजाके भाण्डार गहमें अगन्धन नामका साँप हआ और अ दुष्टताके कारण राजासे सदा द्रोह रखने लगा ॥४२॥ श्रीभूति पुरोहितके स्थानपर धम्मिल्ल नामक दूसरा ब्राह्मण रखा गया परन्तु वह भी मिथ्यादृष्टि था और प्रायः नहीं कहे कार्यको करनेके लिए उद्यत रहता था ॥४३|| सुमित्रदत्त वणिक रत्न लेकर अपने पद्मखण्डपुर नगरको चला गया। यद्यपि वह जैन था-जन धर्मके स्वरूपको समझता था तथापि 'मैं रानी रामदत्ताका पुत्र होऊं ऐसा उसने निदान बांध लिया और इसी इच्छासे वह खूब दान करने लगा ।।४४।। वणिक्को स्त्री सुमित्रदत्तिका जो सदा उससे विरोध रखती थी मरकर एक पर्वतपर व्याघ्री हुई। एक दिन सुमित्रदत्त किन्हीं मुनिराजकी वन्दनाके लिए उसी पर्वतपर गया था सो उस व्याघ्रीने उसे खा लिया। वह रामदत्ताका पुत्र हुआ। यद्यपि वह अपने पुण्य बलसे इन्द्र हो सकता था तथापि निदानके द्वारा इन्द्रत्वको उपेक्षा कर राजपुत्र ही हुआ। उसका सिंहचन्द्र नाम रखा गया तथा वह रामदत्ताके स्नेह-बन्धनसे युक्त था-उसे अतिशय प्यारा था ।।४६॥ सिंहचन्द्रके, इन्द्रके समान आभावाला पूर्णचन्द्र नामका एक छोटा भाई भी हुआ। ये दोनों भाई पृथिवीपर सूर्य-चन्द्रमाके समान प्रसिद्ध थे ॥४७|| एक समय राजा सिंहसेन कार्यवश भाण्डागारमें प्रविष्ट हुए सो वहां पूर्व वैरके कारण पुरोहितके जोव अगन्धन नामक दुष्ट साँपने उन्हें काट खाया ||४८|| उसी नगर में एक गारुडिक विद्या (सर्प उतारनेको विद्या) का अच्छा जानकार गरुडदण्ड रहता था। उसने मन्त्र अगन्धनको आदि लेकर समस्त सर्पोको बुलाकर उनसे कहा कि तुम लोगोंमें जो एक अपराधी सर्प है वही यहाँ ठहरे, बाकी सब यथास्थान चले जावें । गरुडदण्डके ऐसा कहनेपर राजाको १. रदृष्टार्थ म.। २. रामदत्तायाः पुत्रोऽहं भवेयमिति वाञ्छया निदानयुक्तोऽभूत् । ३. सिंहसेनं स गन्धनः म. । ४. सर्पाः।
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