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हरिवंशपुराणे
प्रत्याशादग्धचित्तश्च नृपांगारसमीपगम् । उच्चैस्तरुं समारुह्य पूरकरोतीति नित्यशः ॥२६॥ सिंहसेनो महाराजो रामदत्ता कृपावती । साधुलोकस्तथान्योऽपि शृणोतु कृपया युतः ॥ २७ ॥ मासे पक्षेऽह्नि चामुष्मिन् श्रीभूतेः सत्यतो मया । पचैवंविधरत्नानि हस्ते न्यस्तानि तान्यसौ ॥२८॥ प्रदातुं नेच्छतोदानीमतिलुब्धमतिर्मम । इति प्रत्यूषवेलायां नित्यं पूरकृत्य यात्यसौ ॥२९॥ बहुत्वेवमतीतेषु मासेषु नृपमेकदा रात्रौ प्रियावदद्राजन्नन्यायोऽयमहो महान् ॥३०॥
foot दुर्बलाश्चापि लोके सन्ति तदत्र किम् । बलिनां दुर्बला हस्तैर्लमन्ते नैव जीवितुम् ॥३१॥ दुर्बलस्य वराकस्य हृतान्यस्य बलीयसा । रत्नानि तानि दाप्यन्तां यदि तेऽस्ति कृपा प्रभो ॥ ३२ ॥ राजा प्राह प्रिये ! वार्घौ भिन्नपात्रोऽयमत्रपः । अर्थनाशे ग्रही जातः प्रलपत्य विदुःखितः ॥३३॥ इत्युक्ता सा जगौ राजन्नैषोऽर्थं प्रहदूषितः । यतो नियमितालापस्तस्वतस्तत्परीक्ष्यताम् ॥३४॥ इस्याकर्ण्य नृपोऽपृच्छत्तमुपांशु दिनानने । अपहृते स्म स द्रोही कुतो लुब्धस्य सत्यता ॥३५॥ ततो द्यूतच्छलेनैव स परोक्षितुमुद्यतः । राज्ञी तं तु पुराप्राक्षीत् रात्रौ भुक्तमलक्षिता ॥३६॥ गत्वा निपुणमत्या च राजपल्या निदेशतः । याचिता नो ददौ तानि साभिज्ञानमपि प्रिया ॥३७॥ द्यूते निर्जितमादाय ब्रह्मसूत्रं ययाच सा । धात्री तथापि नो लेभे पत्यादेशो हि तादृशः ॥ ३८ ॥
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लौटकर उसने पुरोहितसे अपने रत्न माँगे परन्तु प्राप्त नहीं कर सका । राजद्वारमें उसने प्रार्थना की परन्तु पुरोहितको प्रमाण माननेवाले राज- कर्मचारियोंने उसे तिरस्कृत कर भगा दिया ||२५|| अन्तमें बदलेको आशासे जिसका चित्त जल रहा था ऐसा सुमित्रदत्त वणिक् राजमहल के समीप एक ऊँचे वृक्षपर चढ़कर प्रतिदिन यह कहता हुआ रोने लगा कि महाराज सिंहसेन, दयावती रानी रामदत्ता तथा अन्य सज्जन पुरुष दयायुक्त हो मेरी प्रार्थना सुनें । मैंने अमुक मास और पक्ष के अमुक दिन श्रीभूति पुरोहितकी सत्यवादितासे प्रभावित होकर उसके हाथमें इस इस प्रकारके पांच रत्न रखे थे परन्तु इस समय वह अत्यन्त लुब्ध होकर मेरे वह रत्न देना नहीं चाहता है । इस प्रकार प्रतिदिन प्रातःकाल के समय रोकर वह यथास्थान चला जाता था || २६ - २९ ।। इस प्रकार उसे रोते-रोते जब बहुत महीने बीत गये तब एक दिन प्रिया रामदत्तारात्रि के समय राजासे कहा कि हे राजन् ! यह बड़ा अन्याय है । लोकमें बलवान् और दुर्बल सभी होते हैं तो क्या बलवानोंके हाथसे दुर्बल मनुष्य जीवित नहीं रह सकते ? ||३०-३१|| इस बेचारे दुर्बल रत्न अतिशय बलवान् पुरोहितने हड़प लिये हैं । इसलिए हे प्रभो ! यदि इसपर आपको दया आती है तो इसके रत्न दिलाये जावें ||३२|| राजाने कहा कि हे प्रिये ! समुद्र में इसका जहाज फट गया था, इसलिए यह निर्लज्ज धन नष्ट हो जानेके कारण अतिशय दुःखी हो पिशाचसे आक्रान्त हो गया है और उसी दशामें कुछ बकता रहता है ||३३|| इस प्रकार राजाका उत्तर पाकर रामदत्ताने कहा कि हे राजन् ! यह धनरूपी पिशाचसे आक्रान्त नहीं है क्योंकि यह प्रतिदिन एक ही बात कहता है अतः इसकी परीक्षा की जाये || ३४|| यह सुनकर राजाने प्रातःकाल एकान्तमें पुरोहितसे पूछा परन्तु वह द्रोही सर्वथा मेंट गया सो ठीक ही है क्योंकि लोभी मनुष्य के सत्यता कैसे हो सकती है ? ||३५|| तदनन्तर राजा जुआके छलसे ही पुरोहितकी परीक्षा करनेके लिए उद्यत हुआ । रानी रामदत्ताने जुआ खेलने के पूर्व ही किसी बहाने पुरोहित से पूछ लिया था कि आज आपने रात्रिमें क्या भोजन किया था ? || ३६ || रानी रामदत्ताको आज्ञा पाकर निपुणमति धायने जाकर पुरोहितको स्त्रोसे रत्न माँगे और पहचान के लिए रात्रि के भोजनकी बात बतायी परन्तु पुरोहितकी स्त्रीने रत्न नहीं दिये ||३७|| अबकी बार जुआमें जीता हुआ जनेऊ ले जाकर निपुणमतिने पुरोहितको स्त्रीसे रत्न माँगे परन्तु फिर भी वह उन्हें प्राप्त
१. याचितानि म. |
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