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अष्टाविंशः सर्गः
३७५ अन्यदान्यभवोपात्तवैरबन्धानुबन्धतः । पादं चकर्त्त चक्रेण महिषस्य मृगध्वजः ॥२६॥ राज्ञा विज्ञाय 'चाज्ञप्ते मृगध्वजवधे रुषा। छद्मना मन्त्रिणा नीत्वारण्ये श्रामण्यमापितः ॥२७॥ भद्रके भद्रभावेन मृते चाष्टादशेऽहनि । द्वाविंशे केवली जातः शुद्धध्यानान्मृगध्वजः ॥२८॥ चतुर्णिकायदेवैः स मत्यैश्च कृतपूजनः । संपृष्टो वैरसंबन्धः पित्रा नु जित शत्रुणा ॥२९॥ मृगध्वजमुनिः प्राह देवदानवमानवैः । कथाकेर्णनसंतुष्टचित्तकर्णपुटैर्वृतः ।।३०।। प्रतिशत्रुस्त्रिपिष्टस्य द्रोह्यभूदलकापुरे । अश्वग्रीव इति ख्यातो विद्याधरमहेश्वरः ॥३१॥ सचिवस्तस्य निस्तीर्णतर्कमार्गमहार्णवः । हरिश्मश्रुवदस्पृश्यो हरिश्मश्रु इति श्रुतः ॥३२॥ नास्तिकैकान्तवादी स प्रत्यक्षकप्रमाणकः । प्रत्यक्षानुपलभ्यं यत्तन्नास्तीत्यभ्युपेतवान् ॥३३॥ चतुर्मतसमूहेऽस्मिन् किवादी मदशक्तिवत् । चैतन्यशक्तिरत्यन्तमसत्येव भवत्यसौ ॥३४॥ आत्मेति व्यवहारोऽत्र लोकस्य व विरुध्यते । न भूतव्यतिरिक्तोऽस्ति संसार्यनुएलब्धितः ॥३५॥ पुण्यापुण्यविधाता यो भोक्ता च सुखदुःखयोः । इष्टो जैस्तस्य वा दृष्टेरभावात् पारलौकिकः ॥३६॥ नारकस्वर्गतिर्यक्त्वविकल्पोऽज्ञविकल्पितः । भोगाधिष्ठात्रधिष्ठानः परलोको न विद्यते ॥३०॥
दिलाकर उसका भद्रक नाम रख दिया। भद्रक दिन-प्रति-दिन बडा होने लगा ॥२५।। किसी समय राजपुत्र मृगध्वजने अन्य भवसम्बन्धी वैरके संस्कारसे चक्रके द्वारा उस भैंसेका एक पांव काट डाला ||२६|| राजाको जब इस बातका पता चला तो उसने क्रोधमें आकर मगध्वजको मारनेका आदेश दे दिया । मन्त्री बुद्धिमान् था इसलिए उसने मृगध्वजको मारा तो नहीं किन्तु किसी छलसे वनमें ले जाकर उसे मुनि दीक्षा दिला दी ॥२७।। भद्रक शुभ परिणामोंसे अठारहवें दिन मर गया और बाईसवें दिन निर्मल ध्यानके प्रभावसे मृगध्वज मुनि केवलज्ञानी हो गये ॥२८॥ चारों निकायके देव तथा मनुष्योंने आकर मृगध्वज केवलीकी पूजा की। तदनन्तर पिता जितशत्रुने मृगध्वज केवलीसे मृगध्वज तथा भैसेके वैरका सम्बन्ध पूछा ।।२९।। तदनन्तर कथाके सुननेसे जिनके चित्त तथा हृदय प्रसन्न हो रहे थे ऐसे देव, दानव और मानवोंसे घिरे मृगध्वज मुनि इस प्रकार कहने लगे ॥३०॥
किसी समय अलका नगरीमें प्रथम नारायण त्रिपिष्टका प्रतिशत्र-प्रतिनारायण, अश्वग्रीव नामसे प्रसिद्ध विद्याधरोंका राजा रहता था ॥३१।। उसका हरिश्मश्रु नामका एक मन्त्री था जिसने तर्कशास्त्र रूपी महासागरको पार कर लिया था और सिहकी मूंछके समान जिसका स्पर्श करना कठिन था ॥३२॥ हरिश्मश्रु एकान्तवादी नास्तिक तथा सिर्फ प्रत्यक्षको प्रमाण माननेवाला था इसलिए जो वस्तु प्रत्यक्ष नहीं दिखती थी उसे वह 'है ही नहीं' ऐसा मानता था ॥३३॥ उसका कहना था कि जिस प्रकार आटा आदिमें मद शक्ति पहले नहीं थी किन्तु विभिन्न वस्तुओंका संयोग होनेपर नवीन हो उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार पृथिवी आदि चार भूतोंके समूह स्वरूप इस शरीरमें जो पहले बिलकुल ही नहीं थी ऐसी नवीन ही चैतन्य शक्ति उत्पन्न हो जाती है ।।३४॥ इसी चैतन्य शक्तिमें 'यह आत्मा है' ऐसा लोगोंका व्यवहार विरुद्ध नहीं होता अर्थात् उस चैतन्य शक्तिको लोग आत्मा कहते रहें इसमें कोई विरोधकी बात नहीं है। यथार्थमें पृथिव्यादि भूतोंसे अतिरिक्त कोई संसारी आत्मा नहीं है क्योंकि उसकी उपलब्धि नहीं होती.॥३५॥ पुण्य-पापका कर्ता, सुख-दुःखका भोक्ता और परलोकमें जानेवाला जो अज्ञानी जनोंने मान रखा है वह नहीं है क्योंकि वह दिखाई नहीं पड़ता ॥३६॥ भोगोंके अधिष्ठाता-आत्माके रहनेका आधार, तथा नरक देव और तिथंचोंके भेदसे युक्त जिस परलोकको कल्पना अज्ञानी जनोंने कर रखी है वह नहीं १. चाज्ञप्ते{ग •मः । २. वर्णन म. । ३. सिंहश्मश्रु वत् । ४. इष्टाज्ञः म. ।
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