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षडविंशः सर्गः
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अन्तरिक्षे मुमुक्षस्तमद्राक्षीद द्वागधोऽन्तरे । रिपुं मानसवेगाख्यमकस्मात्समुपस्थितम् ॥२७॥ विमुच्य 'वियतः शौरिमारणे विनियुज्य तम् । यथेष्टं सा गता सोऽपि पपात तृणकूट के ॥२८॥ गीयमानं नरैः श्रुत्वा जरासन्धयशः सितम् । ज्ञात्वा राजगृहं तुष्टः प्रविष्टः पुरमुत्तमम् ॥२९॥ यते जिरवा हिरण्यस्य कोटिमत्र जनार्य सः । त्यागशीलो ददी सर्वा सर्वस्मै तामितस्ततः ॥३०॥ जरासन्धस्य हन्तारमीदग्ना जनयिष्यति । इति नैमित्तिकादेशादीदुगन्विष्यते तदा ॥३॥ दृष्ट्वा च तं तदाध्यक्षमस्वारुद्धृतनुश्च सः । नीस्वा मुक्तो गिरेरग्रान् म्रियतामिति तत्क्षणे ॥३२॥ ततः पतनसौ वेगाद्वेगवत्या तो बलाद । नीयमानस्तया क्वापि चिन्तामेतामुपागतः ॥३३॥ भारुण्डैरण्डजैः पूर्व चारुदत्तो यथाहृतः । तथाहमपि नूनं तैर्दुरन्तं किं नु मे भवेत् ॥३४॥ दुरन्ता बन्धुसंबन्धा दुरन्ता मोगसंपदः । दुरन्ताः कान्तिकायाश्च तथापि स्वन्तधीर्जनः ॥३५॥ पुण्यपापकृदेकोऽयं भोक्ता च सुखदुःखयोः । जायते म्रियते चात्मा तथापि स्वजनोन्मुखः ॥३६॥ त एव सुखिनो धीरास्त एव स्वहिते स्थिताः । विहाय भोगसंबन्धान ये स्थिता मोक्षवर्मनि ॥३७॥ भोगतृष्णोमिनिमग्ना वयं तु गुरुकमेकाः । संसारसुखदुःखातो मुहुः कुमो विवर्तनम् ॥३८॥ इत्यादि चिन्तयन् वोरो वेगवत्या गिरेस्तटे । अवतायैष भस्त्रायाः समाकृष्य बहिः कृतः ॥३९॥
प्रज्वलित कर छलसे वसुदेवको हर ले गयी ।।२६।। वह उन्हें आकाशमें ले जाकर छोड़ना ही चाहती थी कि उसे नोचे आकाशमें अकस्मात् आता हुआ कुमारका वैरी मानसवेग विद्याधर दिखा। आकाशसे छोड़कर कुमारको मार दिया जाये इस कार्यमें मानसवेगको नियुक्त कर सूर्पणखी यथेष्ट स्थानपर चली गयो और कुमार घासकी गंजीपर नीचे गिर गये ॥२७-२८॥ वहाँ मनुष्यों के द्वारा गाये हुए जरासन्धके उज्ज्वल यशको सुनकर कुमारने जान लिया कि यह राजगृह नगर है अतः उन्होंने सन्तुष्ट होकर उस उत्तम नगर में प्रवेश किया ॥२९।। राजगृह नगरमें कुमारने जुए में एक करोड स्वर्णकी मद्राएं जीतीं और दानशील बनकर सबकी सब यहाँ-वहाँ समस्त लोगोंको बाँट दीं ॥३०॥ निमित्तज्ञानियोंने जरासन्धको बतलाया था कि जो जुएमें एक करोड़ सुवर्ण मुद्राएं जीतकर बाँट देगा वह तुम्हें मारनेवाले पुत्रको उत्पन्न करेगा। निमित्तज्ञानियोंके आदेशानुसार वहां उस समय ऐसे व्यक्तिको खोज हो रही थी ॥३१।। जरासन्धके अधिकारियोंने वसुदेवको देखकर पकड़ लिया और 'तत्काल मर जाये' इस भावनासे उन्हें एक चमड़ेकी भाथड़ीमें बन्द कर पहाड़की चोटीसे नीचे छोड़ दिया ॥३२॥ वसुदेव नीचे गिर हो रहे थे कि अकस्मात् वेगवतीने वेगसे आकर जोरसे उन्हें पकड़ लिया। जब वेगवती उन्हें पकड़कर कहीं ले जाने लगी तब वे मनमें ऐसा विचार करने लगे कि देखो! जिस प्रकार पहले भारुण्ड पक्षी चारुदत्तको हर ले गये थे उसी प्रकार जान पड़ता है मझे भी भारुण्ड पक्षी हरकर लिये जा रहे हैं. न जानें अब क्या दःख होता है ? ॥३३-३४।। ये बन्धुजनोंके सम्बन्ध दुरन्त-दुःखदायक हैं, भोग सम्पदाएँ दुरन्त हैं, और कान्तिपूर्ण शरीर भी दुरन्त है फिर भी मूर्ख प्राणी इन्हें स्वन्त - सुखदायक समझता है ।।३५।। वह जीव अकेला ही पुण्य और पाप करता है, अकेला ही सुख और दुःख भोगता है, और अकेला हो पैदा होता तथा मरता है फिर भी आत्मीयजनोंके संग्रह करनेमें तत्पर रहता है ॥३६॥ वे ही धोर, वीर मनुष्य सुखी हैं और वे ही आत्महितमें लगे हुए हैं जो भोगोंसे सम्बन्ध छोड़कर मोक्षमार्गमें स्थित हैं ॥३७|| हमारे कर्म बड़े वजनदार हैं इसलिए हम भोग तृष्णारूपी तरंगोंमें डूब रहे हैं तथा सुख-दुखको प्राप्ति में हो बार-बार परिभ्रमण करते-फिरते हैं ।।३८॥
तदनन्तर इस प्रकार चिन्तन करते हुए वोर वसुदेवको वेगवतीने पर्वतके तटपर उतारा
१. वियति म. । २. ईदृशो नरः । ३. पतदसौ म. । ४. यथादृतः म. ।
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