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षड्विंशः सर्गः
- ३६१ तस्यैव साभवत्पनी निःसपत्नं यथा तथा । अवश्यम्भाविनी पत्नी तवाहमिति बुध्यताम् ॥५३॥ त्वं गृहाण विमो विद्या विद्याधरसुदुर्लभाम् । इत्युक्तः सोऽवददेया वेगवत्यै ममेच्छया ॥५४॥ लब्धादेशा तथेत्युक्त्वा ततो वेगवतीमसौ । खमुरिक्षप्य ययौ कन्या पुरं गगनवल्लभम् ॥५५॥
शालिनीच्छन्दः विद्यादानं बालचन्द्राभिधाना विद्यां दत्वा कन्यका वेगवत्यै । सद्यो जाता मुक्तशल्या च जैन्यो विद्याधर्यः साधयन्स्यभ्युपेतम् ॥५६॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसँग्रह हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती बालचन्द्रादर्शनवर्णनो नाम
षड्विंशः सर्गः ॥२६॥
नामकी कन्या हो गयी है। उसे मेरे ही समान पुण्डरीक नामक अर्धचक्रोने अचानक आकर बन्धनसे मुक्त किया था और वह जिस प्रकार उसी अर्धचक्रीकी निविरोध पत्नी हो गयी थी उसी प्रकार में भी आपकी पत्नी अवश्य होनेवाली हूँ। यह आप निश्चित समझ लीजिए ॥५२-५३।। हे नाथ! आप विद्याधरोंके लिए अतिशय दुर्लभ इस विद्याको ग्रहण कीजिए । कन्याके इस प्रकार कहनेपर कुमार वसुदेवने कहा कि वह विद्या मेरी इच्छासे वेगवतीके लिए देने योग्य है ।।५४|| कुमारकी आज्ञा पाकर उसने 'तथास्तु' कह वेगवतीके लिए वह विद्या दे दी और तदनन्तर आकाशमें उड़कर वह गगनवल्लभ नगरको चली गयी ॥५५॥ कुमारी बालचन्द्रा, वेगवतीके लिए विद्यारूपी दान देकर शीघ्र ही निःशल्य हो गयो सो ठीक ही है क्योंकि जिनधर्मकी उपासना करनेवाली विद्याधरियां अपने मनोरथको शीघ्र ही सिद्ध कर लेती हैं ॥५६॥ इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें बालचन्द्राके
दर्शनका वर्णन करनेवाला छब्बीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥२६॥
१.निःसपत्नी म.। २. इत्युक्तोऽसौ वदद्देया म., क.,ख.। ३. नगरवल्लभम् म.। ४. विद्या क., ख.,।
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