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हरिवंशपुराणे
नमस्तिलकनाथश्च खेटस्त्रिशिखरः खलः । याचित्वैनां स्वपुत्राय सूर्यकाय न लब्धवान् ॥४१॥ युद्धे रन्ध्रमसौ लब्ध्वा बध्वास्मजनकं व्यधात् । वैरानुबन्धबुद्धि स्तं बन्धनागारवत्तिनम् ॥४२॥ संप्राप्तश्च त्वमस्माभिः सांप्रतं पुरुविक्रमः । श्वशुरस्यारिबद्धस्य कुरु बन्धविमोक्षणम् ॥४३॥ पूर्वजानां च दत्तानि सुभौमेन प्रसादिना । विद्यास्त्राणि गृहाणेश ! शात्रवस्य जिघांसया ॥४४॥ श्रुत्वा दधिमुखस्योक्तं वसुदेवः प्रतापवान् । श्वशुरस्य विमोक्षार्थ मतिमात्मनि चादधे ॥४५॥ चण्डवेगस्ततस्तस्मै विद्यास्त्राणि बहून्यसौ । विधिपूर्व ददौ यूने सेवितानि सुरैः सदा ॥४६॥ अस्त्रं ब्रह्मशिरो नाम्ना लोकोत्सादनमप्यतः । आग्नेयं वारुणं चास्त्रं माहेन्द्रं वैष्णवं तथा ॥४७॥ यमदण्डमथैशानं स्तम्भनं मोहनं तथा । वायव्यं जम्मणं चापि बन्धनं मोक्षणं ततः ॥४८॥ विशल्यकरणं चास्त्रं व्रणसंरोहणं तथा । सर्वास्त्रच्छादनं चैव छेदन हरणं परम् ॥४९॥ एवमाद्यानि चान्यानि सरहस्यानि यादवः । चण्डवेगवितीर्णानि जग्राहास्त्राणि सादरः ॥५०॥ स्वयमेव बलोद्रेकात् करत्रिशिखरो बलैः । युयुत्सुरागमक्षिप्रं चण्डवेगपुरान्तिकम् ॥५१॥ गत्वा बध्यः स्वयं प्राप्तः समीपमिति तोषवात् । शौरिः श्वशुरपुत्रादिबलेनामा विनिर्ययौ ॥५२॥ खेचराणां निकायस्य मध्ये स यदुनन्दनः । कल्प्यवासिनिकायस्य पुरन्दर इवाबभौ ॥५३॥ खे मातङ्गनिकायस्य मध्ये त्रिशिखरो बमौ । रौद्रासुरनिकायस्य यथैव चमरासुरः ॥५४॥ विमानैश्च महामानैर्गजैश्च मदमत्सरैः । तुरङ्गैर्वायुवेगैश्च बलयोः स्थगित नभः ॥५५॥
पुत्रको तेज वेगसे युक्त गंगा नदी में विद्या सिद्ध करनेके कार्यमें नियुक्त किया ॥४०॥ नभस्तिलक नगरका राजा त्रिशिखर नामका दुष्ट विद्याधर, अपने सूर्यक नामक पुत्रके लिए इस कन्याको कई बार याचना कर चुका था पर इसे प्राप्त नहीं कर सका ॥४१॥ इसलिए सदा वर रखता था। एक दिन युद्धमें अवसर पाकर उसने हमारे पिताको बाँधकर कारागृहमें डाल दिया ।।४२।। इस समय प्रबल पराक्रमको धारण करनेवाले आप हम सबको प्राप्त हुए हैं इसलिए शत्रुके द्वारा बन्धनको प्राप्त अपने श्वसुरको शीघ्र ही बन्धनसे मुक्त करो ॥४३॥ सुभौम चक्रवर्तीने प्रसन्न होकर हमारे पूर्वजोंके लिए जो विद्यास्त्र दिये थे हे स्वामिन् ! शत्रुका धात करनेकी इच्छासे उन्हें ग्रहण कीजिए॥४४॥
इस प्रकार दधिमुखके कहे वचन सुनकर प्रतापी वसुदेवने श्वसुरको छुड़ानेके लिए मनमें विचार किया ॥४५॥ तदनन्तर चण्डवेगने युवा वसुदेवके लिए देव जिनकी सदा सेवा करते थे ऐसे बहुत-से विद्यास्त्र विधिपूर्वक प्रदान किये ॥४६॥ उनमें से कुछ विद्यास्त्रोंके नाम ये हैं-ब्रह्मशिर, लोकोत्सादन, आग्नेय, वारुण, माहेन्द्र, वैष्णव, यमदण्ड, ऐशान, स्तम्भन, मोहन, वायव्य, जृम्भण, बन्धन, मोक्षण, विशल्यकरण, व्रणरोहण, सर्वास्त्रच्छादन, छेदन और हरण ॥४७-४९।। इस प्रकार इन्हें आदि लेकर चलाने और संकोचनेको विधि सहित अन्य अनेक विद्यास्त्र वण्डवेगने कुमार वसुदेवके लिए दिये और उन्होंने आदरके साथ उन्हें ग्रहण किया ॥५०॥ उस समय बलको अधिकतासे युद्धकी इच्छा रखता हुआ दुष्ट त्रिशिखर, स्वयं ही सेनाओंके साथ शीघ्र चण्डवेगके नगरके समीप आ पहुँचा ॥५१॥ 'जिसे जाकर बाँधना था वह स्वयं ही पास आ गया' यह विचारकर सन्तुष्ट होते हुए वसुदेव, अपने सालों आदिकी सेनाके साथ बाहर निकले ॥५२॥ विद्याधरोंके झुण्डके बीच वह वसुदेव कल्पवासी देवोंके समूहके बीच इन्द्र के समान सुशोभित हो रहे थे॥५३॥ और आकाशमें खड़े मातंग जातिके विद्याध रोंके बीच त्रिशिखर क्रूर असुरोंके बीच में स्थित चमरेन्द्रके समान सुशोभित हो रहा था ॥५४॥ दोनों ही सेनाओंके बड़े-बड़े विमानों, मदोन्मत्त हाथियों और वायुके समान वेगशाली घोड़ोंसे आकाश आच्छादित हो गया ॥५५।। शस्त्र-समूहकी किरणोंसे जिन्होंने सूर्यको किरणोंको आच्छादित कर दिया था तथा जो तुरही आदि वादित्रोंके शब्दसे १. शक्त्यतिरेकात् । २. सह । ३. आच्छन्नम् ।
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