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हरिवंशपुराणे ततः शौरिः समस्तैस्तैरात्मीयैः खेचरैर्वृतः । श्वसुरं बन्धनागाराद्विमोच्य स्वपुरं ययौ ॥७॥
दोधकवृत्तम्
दुर्जयमप्यरिलोकमनेकैः शौर्यसखो निखिलं खचरौघैः। आशु विजित्य जनो जिनधर्मादाश्रयतामिह याति बहूनाम् ॥७२॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रह हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृतो मदनवेगालाभत्रिशिखरवधवर्णनो
नाम पञ्चविंशः सर्गः ॥२५॥
नष्ट हो जाते हैं उसी प्रकार देदीप्यमान त्रिशिखिरके अस्तमित होते ही शेष विद्याधर दिशाएँ ( अथवा अभिलाषाएं) छोड़कर नष्ट हो गये-भाग गये ||७०॥ तदनन्तर अपने पक्षके समस्त विद्याधरोंसे घिरे हुए वसुदेव, कारागृहसे श्वसुरको छुड़ाकर अपने नगर वापस गये ॥७१॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि जिनधर्मके प्रसादसे एक प्रतापी मनुष्य, अनेक विद्याधरोंके समूहसे दुर्जेय समस्त शत्रुओंको शीघ्र ही जीतकर बहुत-से मनुष्योंकी आश्रयताको प्राप्त हो जाता है-उनके द्वारा सेवनीय हो जाता है अतः सदा जिनधर्मको उपासना करनी चाहिए ॥७२॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि पुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें मदनवेगाके
लाभ और त्रिशिखिरके वधका वर्णन करनेवाला पचीसवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥२१॥
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