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चतुर्विशः सर्गः
३४९ अन्यदा तु विबुद्धोऽसौ प्रथमं कथमप्यथ । सोमश्रीरूपमुक्का तां ददर्श शयितां निशि ॥६७॥ धीरो विस्मययुक्तस्तां सहसा स्वयमुस्थिताम् । अप्राक्षीद् ब्रह्महो का त्वं सोमश्रीरिव वर्तसे ॥६॥ सा प्रणम्यामणीसौम्य ! दक्षिणश्रेण्यवस्थितम् । स्वर्णामं पुरमस्येशश्चित्तवेगो नभश्चरः ॥१९॥ परन्यङ्गारवती तस्य प्रत्यङ्ग संगतप्रमा। सूनुर्मानसवेगोऽस्याः सुता वेगवती त्वहम् ॥७०॥ राज्यं मानसवेगे च पिता न्यस्य तपस्यया । पापस्योपशमं कतं तपोवनमुपाविशत् ॥७१॥ नीता मानसवेगेन सोमश्रीः स्वपुरं परम् । आय ! तिष्ठति तत्रासौ शीलवेलावलम्बिनी ।।७।। तस्याः प्रसादने तेन प्रयुक्ताहमशक्तितः । स्वस्प्रियायाः सखी जाता सत्वशीलवशीकृता ।।७३॥ वार्तानिवेदनायाहं प्रेषिताश तया तदा । स्वस्कलत्रत्वमायाता विचित्राश्चित्तवृत्तयः ॥४॥ इत्यावेद्य तदादेशाद्वेगवस्या निवेदितम् । सक्रमं पितृबन्धुभ्यः सोमश्रीहरणादिकम् ॥७५॥ श्रुत्वा च तत्तथा तेऽपि विषण्णमतयः स्थिताः । वेगवस्यपि पस्यामा प्रकृत्या चिरमारमत् ॥७॥ तया सह सुखं तस्य रममाणस्य भोगिनः । संप्राप्तो माधवी मासो मधुमत्तमधुव्रतः ॥७॥ कदाचित्सह सुप्तोऽसौ तया सुरतखिन्नया। हृतो मानसवेगेन खेचरेण निशि द्रुतम् ॥७८॥ ताडितश्च विबुद्धेन खेचरो दृढमुष्टिना । तेन गङ्गाजले तं च मुमोच मयविह्वलः ॥७९॥ विद्या साधयतस्तत्र स्कन्धे विद्याधरस्य सः । पपात नमसस्तस्य विद्यासिद्धिस्तथोदिता ॥८॥ सिद्धविद्यः प्रणम्यासौ प्रयातो यदुनन्दनम् । कन्या विद्याधरी चैनं निनाय खचराचलम् ॥१॥
अथानन्तर किसी दिन वसुदेव उससे पहले जाग गये और रात्रिके समय सोमश्रीका रूप छोड़कर सोती हुई उस स्त्रीको उन्होंने असली रूपमें देख लिया ॥६७।। यह देख धीर-वीर ' वसुदेव आश्चर्यमें पड़ गये। उसी समय वह स्त्री भी सहसा जाग उठी। वसुदेक्ने उससे पूछा कि
अहो! तू सोमश्रीके समान कौन है ? ॥६८|| इसके उत्तरमें उसने प्रणाम कर कहा कि हे सौम्य ! दक्षिण श्रेणीमें एक स्वर्णाभ नामका नगर है। इसका स्वामी मनोवेग नामका विद्याधर है ॥६९।। मनोवेगकी अंगारवती नामको अत्यन्त सुन्दर पत्नी है । उसके मानसवेग नामका पुत्र और वेगवती नामकी मैं पुत्री हूँ ॥७०।। हमारे पिता मानसवेगको राज्य देकर तपस्यासे पापका उपशम करनेके लिए तपोवन में चले गये ॥७१।। हे आर्य! हमारा भाई मानसवेग, सोमश्रीको हरकर अपने श्रेष्ठ नगरको ले गया जहाँ वह शीलकी मर्यादाका अवलम्बन लेकर विद्यमान है॥७२॥ मानसवेगने प्रसन्न करनेके लिए मुझे नियुक्त किया था पर मैं इस कार्य में समर्थ नहीं हो सकी अतः आपकी प्रियाके सत्त्व और शील गुणसे वशीभूत हो उसकी सखी बन गयो |॥७३॥ उस समय शीघ्रतासे अपना समाचार देने के लिए उसने मुझे आपके पास भेजा था पर मैं आपकी स्त्री बन गयो सो ठीक ही है क्योंकि चित्तवृत्तियाँ नाना प्रकारको होती हैं ।।७४।। इस प्रकार वेगवतीने कुमारको सब समाचार बताकर उनकी आज्ञानुसार सोमश्रीके पिता तथा भाई आदिको भी उसके हरण आदिके सब समाचार क्रमसे सुनाये ॥७५||- जिन्हें सुनकर वे सब खेदखिन्न हुए। इधर वेगवती भी अपने असली रूपमें रहकर चिरकाल तक पतिके साथ क्रीड़ा करती रही ॥७६॥
अथानन्तर जब भोगी वसुदेव वेगवतीके साथ सुखसे कोड़ा करते हुए समय व्यतीत कर रहे थे तब वसन्तका महीना आ पहुंचा और भ्रमर मधु पो-पोकर उन्मत्त होने लगे ॥७७|| कदाचित् वसुदेव सम्भोगसे खिन्न हुई वेगवतीके साथ सो रहे थे कि रात्रिके समय मानसवेग विद्याधर उन्हें शीघ्र ही हर ले गया। जागनेपर उन्होंने मुट्टियोंके दृढ़ प्रहारसे उसे इतना पीटा कि उसने भयसे विह्वल हो उन्हें गंगाके जलमें छोड़ दिया ॥७८-७९|| उस समय गंगाके जलमें बैठकर एक विद्याधर विद्या सिद्ध कर रहा था सो वसुदेव आकाशसे उसके कन्धेपर गिरे और उनके
गिरते ही उस विद्याधरको विद्या सिद्ध हो मयी ।।८०॥ विद्या सिद्ध होनेपर वह विद्याधर तो Jain Education International For Private & Personal Use Only
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