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चतुर्विशः सर्गः
३४७ तेनोक्तं सोमदत्तेन राज्ञा कन्यास्वयंवरे । कारिता बहुशश्चित्राः प्रासादाः पृथिवीभृताम् ॥३९।। स्वयंवरविधेः कन्या कुतश्चिदपि हेतुतः । विरक्ताभूदतः सर्वे राजानश्च विसर्जिताः ॥४०॥ इस्याकर्ण्य स तस्याश्च चिन्तयन्मनसो गतिम् । पश्यमिन्द्र महं तत्र शौरियावदवस्थितः ॥४१।। तावञ्च सहसा प्राप्ताः सरक्षाः नृपतिस्त्रियः । इन्द्रध्वजं च वन्दित्वा प्रस्थिताः स्वगृहं पुनः ॥४२॥ आलानस्तम्भमामज्य तदा स समदद्विपः । मारयन्सहसागच्छन्मान्मृत्युरिव स्वयम् ॥४३।। लोकस्य मार्यमाणस्य महाकलकलध्वनिः । दिशो दश तदा व्यार रखतः पश्यतः पथि ॥४॥ प्राप्तश्च मत्तमातङ्गो वेगी प्रवहणान्यसौ । कन्या प्रवहणाच्चैका पपात समया क्षितौ ॥४५॥ करिणं निर्मदीकृस्य तां ररक्ष मयाकुलाम् । पश्यतः सर्वलोकस्य कृतक्रीडः स यादवः ।।४।। परित्यज्य गज श्रान्तं कन्यां भयविमूच्छिताम् । समाश्वासयदुत्थाय सा तमैक्षिष्ट रूपिणम् ॥४७॥ दीर्घमुष्णं च निःश्वस्य वाष्पाकुलविलोचना । पानता करं तस्य जग्राह स्पर्शसौख्यदम् ॥४८॥ गते शौरौ यथास्थानं धात्री वृद्धा महत्तराः । प्रगृह्य कन्यकां तां च ययुरन्तःपुरालयम् ।।४।। ततः कुबेरदत्तस्य भवने कृतभूषणम् । शौरिमेत्य प्रतीहारी राजादेशात्ततोऽवदत् ॥५०॥ ज्ञातमेव हि ते नूनं वृत्तं देव ! यथा नृपः । सोमदत्तः प्रिया चास्य पूर्णचन्द्रेति कीर्तिता ॥५१॥ नाम्ना भूरिश्रवाः पुत्रः सोमश्रीस्तनयानयोः । अस्याः स्वयंवराथं च समाहृता नरेश्वराः ॥५२॥ सोमश्रीनिशि हर्म्यस्था देवागमनदर्शनात् । जातिस्मरणसंयुक्ता मुमूर्छ प्रेमवाहिनी ॥५३॥
कन्याके स्वयंवरमें आनेवाले राजाओंके ठहरनेके लिए ये नाना प्रकारके महल बनवाये थे।॥३९|| परन्तु कन्या, किसो कारण स्वयंवरको विधिसे विरक्त हो गयो इसलिए स्वयंवर नहीं हो पाया और सब लोग विदा कर दिये गये ॥४०॥ यह सुनकर कुमार वसुदेव, उस कन्याके मनकी गतिका विचार करते हुए इन्द्रध्वज विधान देखनेके लिए ज्यों ही बैठे त्यों ही रक्षकोंके साथ राजाकी स्त्रियां सहसा वहाँ आ पहुँची। कुछ समय बाद वे खियाँ इन्द्रध्वज विधानको नमस्कार कर अपने घरकी ओर चलीं ॥४१-४२।। उसी समय बन्धनका खम्भा तोड़कर एक मदोन्मत्त हाथी साक्षात् मृत्यु ( यम ) की तरह मनुष्योंको मारता हुआ वहाँ आ पहुँचा ।।४३।। उस समय जो लोग मारे जा रहे थे तथा जो मार्ग में यह सब देखते हुए चिल्ला रहे थे उनका बहुत भारी कलकल शब्द दशों दिशाओंमें व्याप्त हो गया ॥४४॥ वह मदोन्मत्त हाथो बड़े वेगसे उन खियोंके वाहनोंके समोप आया जिससे भयभीत हो एक कन्या वाहनसे नीचे पृथिवीपर गिर पड़ी ।।४५।। यह देख कुमार वसुदेवने उस हाथोको मदरहित कर भयसे घबड़ायी हुई उस कन्याकी रक्षा की और सब लोगोंके देखते-देखते वे उस हाथोके साथ क्रीड़ा करने लगे ॥४६॥ तदनन्तर जब हाथी थक गया तो उसे छोड़ उन्होंने भयसे मूच्छित कन्याको सान्त्वना दी। कन्याने उठकर सुन्दर रूपके धारक वसुदेवको देखा । देखते ही वह गरम और लम्बी साँस भरने लगी, उसके नेत्र आँसुओंसे व्याप्त हो गये तथा लज्जासे नम्रीभूत होकर उसने स्पर्शजन्य सुखको देनेवाला कुमारका हाथ पकड़ लिया ।।४७-४८।।
तदनन्तर वसुदेव यथास्थान चले गये और वृद्धा धाय, तथा कुलकी बड़ी-बूढो स्त्रियां उस कन्याको लेकर अन्तःपुर चली गयीं ॥४९।। तत्पश्चात् एक दिन कुमार वसुदेव कुबेरदत्त सेठके घर आभूषण आदि धारण कर बैठे थे कि इतने में राजाको आज्ञासे उनको द्वारपालिनी आकर कहने लगी कि हे देव ! यह समाचार आपको अच्छी तरह विदित ही है कि यहाँका राजा सोमदत्त है और उसको रानी पूर्णचन्द्र नामसे प्रसिद्ध है ।।५०-५१।। इन दोनोंके भूरिश्रवा नामका पुत्र और सोमश्री नामकी कन्या है। कन्या सोमश्रीके स्वयंवरके लिए राजाने अनेक राजाओंको बुलाया था ॥५२॥ परन्तु सोमश्री रात्रिके समय महलके ऊपर बैठी थी वहाँ देवोंका आगमन देख वह
१. विमोचना म.। २. भुवने म.।
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