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द्वाविंशतितमः सर्गः चम्पायां रममाणस्य सह गान्धर्वसेनया । वसुदेवस्य संप्राप्तः फाल्गुनाष्टदिनोत्सवः ॥१॥ देवा नन्दीश्वरं द्वीपं खेचरा मन्दरादिकम् । यान्ति वन्दारवः स्थानमानन्दं दधतस्तदा ॥२॥ जन्मनिष्क्रमणज्ञाननिर्वाणप्राप्तितोऽहंतः । वासुपूज्यस्य पूज्या तां चम्पा प्रापुः स्फुरदगृहाम् ॥३॥ आगच्छन्ति तदा कतु जिनेन्द्रमहिमोत्सवम् । सर्वत: पुत्रदाराद्यैर्भूचराश्च नभश्चराः ॥४॥ चम्पावासी जनः सर्वो निश्चक्राम सराजकः । प्रतिमा वासुपूज्यस्य पूज्यां पूजयितुं बहिः ।।५।। रथैः केचिद्गजैः केचित् वाजियुग्यादिमिः परे । निर्यान्ति स्त्रीजनाः पुर्या यात्रायां चित्रभूषणाः ॥१॥ शौरिरश्वरथारूढः साई गान्धर्वसेनया । जिनं पूजयितुं पुर्या निर्यातोऽसौ सपर्यया ॥ ॥ भटमण्डलमध्यस्थो गच्छन् जिनगृहातः । मातङ्गकन्यकावेषां नृत्यत्कन्यां निरैक्षत ॥४॥ नीलोत्पलदलश्यामां वृत्तोत्तुङ्गपयोधराम् । भूषाविद्युल्लताश्लिष्टी योषां वा प्रावृषः श्रियम् ॥९॥ सुबन्धुकाधरच्छायां सुपद्मपदपाणि काम् । पुण्डरीकदर्श दृश्यां मूर्त्तामिव शरन्छियम् ॥१०॥ श्रियं हियं ति बुद्धिं लक्ष्मी चापि सरस्वतीम् । स्वयं जिनेन्द्रभक्त्ये नृत्यन्त मतिरूपिणीम् ॥११॥ स्थितो रङ्गविमागेऽत्र गायकः सपरिग्रहः । मृदङ्गी पणवी चैव दर्दुरी कंसवादकः ॥१२॥
अथानन्तर कुमार वसुदेव चम्पापुरीमें गान्धर्वसेनाके साथ क्रीड़ा करते हुए रहते थे कि उसी समय फाल्गुन मासकी अष्टाह्निकाओंका महोत्सव आ पहुँचा ॥१॥ वन्दनाके प्रेमी एवं हृदयमें आनन्दको धारण करनेवाले देव नन्दीश्वर द्वीपको तथा विद्याधर सुमेरु पर्वत आदि स्थानोंपर जाने लगे ॥२॥ भगवान् वासुपूज्यके गर्भ, जन्म, दीक्षा, ज्ञान और निर्वाण इन पांच कल्याणकोंके होनेसे पूज्य एवं देदीप्यमान गृहसे सुशोभित चम्पापुरीमें भी देव और विद्याधर आये ॥३।। उस समय श्री जिनेन्द्र भगवान्की पूजाका उत्सव करनेके लिए भूमिगोचरी और विद्याधर राजा अपनी स्त्रो तथा पुत्र आदिके साथ सर्व ओरसे वहां आये थे ॥४॥ चम्पापुरीके रहनेवाले सब लोग भी राजाको साथ ले श्री वासुपूज्य स्वामीकी प्रतिमाको पूजनेके लिए नगरसे बाहर गये ||५|| उस समय नाना प्रकारके आभूषणोंको धारण करनेवाली स्त्रियाँ नगरसे बाहर जा रही थीं। उनमें कितनी ही हाथीपर बैठकर तथा कितनी ही घोड़े एवं बेल आदिपर बैठकर जा रही थीं ॥६॥ कुमार वसुदेव भी गान्धर्वसेनाके साथ घोड़ोंके रथपर आरूढ़ हो श्रीजिनेन्द्र देवकी पूजा करनेके लिए सामग्री साथ लेकर नगरीसे. बाहर निकले ॥७॥ अनेक योद्धाओंके मध्यमें जाते हुए कुमार वसुदेवने वहां जिनमन्दिरके आगे मातंगकन्याके वेषमें नृत्य करती हुई एक कन्याको देखा ॥८॥ वह कन्या नील कमल दलके समान श्याम थी, गोल एवं उठे हुए स्तनोंसे युक्त थी तथा बिजलीके समान चमकते हए आभूषणोंसे सहित थी इसलिए हरी-भरी, ऊंचे मेघोंसे यक्त एवं चमकती हई बिजलीसे युक्त वर्षा ऋतुकी लक्ष्मीके समान जान पड़ती थी ॥९॥ अथवा उसके ओठ बन्धूकके पुष्पके समान लाल थे, उसके हाथ-पैर उत्तम कमलके समान थे और नेत्र सफेद कमलके समान थे, इसलिए वह साक्षात् मूर्तिमती शरद् ऋतुको लक्ष्मीके समान दिखाई देती थी ॥१०॥ अथवा वह रूपवती कन्या जिनेन्द्र भगवान्को भक्तिसे स्वयं नृत्य करतो हुई श्री, धृति, बुद्धि, लक्ष्मी एवं सरस्वती देवीके समान जान पड़ती थी॥११॥ नृत्यकी रंगभूमिमें गानेवाले अपने परिकरके साथ स्थित थे। मृदंग, पणव, दर्दुर, झांझ, विपंची और वीणा बजानेवाले बादक तथा उत्तम १. जिनगृहागतः म. । २. जिनेन्द्रभक्तेव म. ।
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