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हरिवंशपुराणे
सुनवो विनमेर्युक्ता विनयेन नयेन च । नानाविद्याकृतोद्योता जाता: सबहुशस्ततः ॥ १०३॥ संजयोऽरिंजय नाम्ना शत्रुंजयधनंजयौ । मणिचूलो हरिश्मश्रुर्मेघानीकः प्रभञ्जनः || १०४ || चूडामणिः शतानीकः सहस्रानीकसंज्ञकः । सर्वजयो वज्रबाहुर्महाबाहुररिंदमः || १०५ || इत्यादयस्तु ते स्तुत्वा उत्तरश्रेणिभूषणाः । भद्रा कन्या सुभद्रान्या स्त्रीरत्नं भरतस्य सा ॥ १०६ ॥ नमस्तु तनया जाता बहुशो बहुशोचिषः । रविस्तनयसोमचं पुरुहूतोंऽशुमान् हरिः ॥१०७॥ जयः पुलस्त्यो विजयो मातङ्गो वासवादयः । कन्या कनकपुञ्जश्रीः कन्या कनकमञ्जरी ॥ १०८ ॥ नमिश्च विनमिः पश्चाद्विपश्चित्पुत्रमण्डले । न्यस्तविद्याधरैश्वर्यौ निवृत्तौ जिनदीक्षितौ ॥ १०९ ॥ मातङ्गो विनमेः सूनुः सूनवस्तस्य भूरिशः । तत्पुत्रपौत्रसंतानो जातः स्वर्मोक्षसाधनः ॥ ११०॥ जिनस्य ह्येकविंशस्य तीर्थे मातङ्गवंशजः । राजा प्रहसितो जातः पुरे ह्यमितपर्वते ॥ १११ ॥ श्रीमातङ्गान्वयव्योमपतङ्गस्य प्रतापिनः । अहं हिरण्यवत्याख्या विद्यावृद्धास्य मामिनी ॥ २॥ पुत्रो मे सिंहदंष्ट्राख्यस्तस्य नीलाञ्जना प्रिया । नीलनीरजनीलाभा कन्या नीलयशास्तयोः ॥ ११३ ॥ 'अनीलयशसस्तस्याः कुरुशील कलागुणैः । कृतोद्यमं मया वंशो वर्णितो लब्धवर्णया ॥ ११४ ॥ हरिवंशनभश्चन्द्र ! चन्द्रमुख्यावलोकितः । नृत्यन्त्या त्वं तयेत्य वासुपूज्य महाहवे ॥ ११५ ॥ तव दर्शनमतस्याः सुखहेतुरभूद् यथा । दुःखहेतुस्तथैवाद्य वर्तते विरहे स्मृतम् ॥ ११६ ॥ न सा स्नाति न सा भुङ्क्ते न सा वक्ति न चेष्टते । सानङ्गशरशल्या च जीवतीति महाद्भुतम् ॥ ११७ ॥
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तदनन्तर राजा विनमिके संजय, अरिंजय, शत्रुंजय, धनंजय, मणिचूल, हरिश्मश्रु, मेघानीक, प्रभंजन. चूडामणि, शतानीक, सहस्रानीक, सर्वजय, वज्रबाहु, महाबाहु और अरिंदम आदि अनेक पुत्र हुए। ये सभी पुत्र विनय एवं नीतिज्ञानसे सहित थे, नाना विद्याओंसे प्रकाशमान थे और उत्तरश्रेणी के उत्तम आभूषणस्वरूप थे । पुत्रोंके सिवाय भद्रा और सुभद्रा नामकी दो कन्याएँ भी हुईं। इनमें सुभद्रा भरत चक्रवर्तीके चौदह रत्नों में एक स्त्रीरत्न थी ।। १०३ - १०६ ॥ इस प्रकार नमिके भी रवि, सोम, पुरुहूत, अंशुमान्, हरि, जय, पुलस्त्य, विजय, मातंग तथा वासव आदि अत्यधिक कान्तिके धारक अनेक पुत्र हुए और कनकपुंजश्री तथा कनकमंजरी नामकी दो कन्याएँ हुई ||१०७ - १०८ ॥ आगे चलकर परम विवेकी नाम और विनमि, पुत्रों के ऊपर विद्याधरोंका ऐश्वर्यं रखकर संसार से विरक्त हो गये और दोनोंने जिन दीक्षा धारण कर ली ॥ १०९ ॥ राजा विनमिके पुत्रों में जो मातंग नामका पुत्र था उसके बहुत से पुत्र-पौत्र तथा प्रपोत्र आदि हुए और वे अपनी-अपनी साधना के अनुसार स्वर्ग तथा मोक्ष गये ।। ११० ।। इस तरह बहुत दिन के बाद इक्कीसवें तीर्थंकरके तीर्थमें असितपर्वत नामक नगर में मातंग वंशमें एक प्रहसित नामका राजा हुआ। वह बड़ा प्रतापी था और मातंग वंशरूपी आकाशका मानो सूर्य था । उसीकी मैं हिरण्यवती नामको स्त्री हूँ और विद्यासे मैंने वृद्ध का रूप धारण किया है ।। १११-११२ ॥ सिंहदंष्ट्र नामका मेरा पुत्र है और नीलांजना उसको स्त्री है । उन दोनोंकी नील कमलके समान नोली आभासे युक्त नीलयशा नामकी एक पुत्री है । मुझे बोलने का अभ्यास है इसलिए मैंने उद्यम कर कुल, शील, कला तथा अनेक गुणोंके द्वारा उज्ज्वल यशको धारण करनेवाली उस कन्याके वंशका वर्णन किया है ।। ११३ ११४ ।। हे हरिवंशरूपी आकाशके चन्द्र ! वह चन्द्रमुखी कन्या आष्टाह्निक पर्वके समय श्री वासुपूज्य भगवान् के पूजा महोत्सव में इस चम्पापुरीमें आयी थी और मन्दिरके आगे जब नृत्य कर रही थी तब उसने आपको देखा था ॥ ११५ ॥ हे कुमार ! इस कन्या के लिए उस समय आपका दर्शन जैसा सुखका कारण हुआ था वैसा ही आज विरहकाल में दुःखका कारण हो रहा है ।। ११६ ॥ न वह स्नान करती है, न खातो है, न बोलती
१. बहुरोचिषः म । २. तनयः सोमश्च ग. । ३. विद्यावृद्धस्य म । ४. अनीलममलिनं यशो यस्यास्तस्याः ।
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