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त्रयोविंशः सर्गः
प्रासादस्थोऽन्यदा श्रुत्वा महाकलकलध्वनिम् । इत्यपृच्छत्प्रतीहारी शौरिः पार्श्वव्यवस्थिताम् ॥१॥ कुतो हेतोरयं लोको वर्तते मुखरोऽखिलः । इत्युक्ता सावदत्तस्मै वृत्तवृत्तान्तवेदिनी ॥२॥ शृणु देवास्ति शैलेऽस्मिन् नगरं शकटामुखम् । तस्येशो नीलवान नाम्ना व्योमगानामधीश्वरः ॥३॥ नीलस्तस्य सुतः कन्या मान्या नीलाञ्जनाभिधा। कुमारकन्ययोवृत्ता संकथा च तयोरिति ॥४॥ पुत्रो मे ते यदा कन्या भविता मविता तयोः । अविवादो विवाहोऽत्र गोत्रप्रीतौ परस्परम् ॥५॥ ऊढायाः सिंहदंष्ट्रण श्वशुरेण तवामुना । सेयं नीलाञ्जनायाश्च जाता नीलयशाः सुता ॥६॥ नीलस्योदूढभार्यस्य नीलकण्ठस्तु यः सुतः । जातोऽस्मै याचते स्मैतां स नीलयशसं तदा ॥७॥ सिद्धादेशस्य सत्साधोरादेशात्त बृहस्पतेः । दत्तेयं तेऽर्द्धचक्रेशपिने पित्रा यशस्विने ॥८॥ 'पितापुत्रौ च तौ नीलनीलकण्ठौ सभान्तरे । खलौ च सिंहदंष्ट्रण व्यवहारं श्रिताविमौ ॥९॥ न्यायेन च तयोरत्र जितयोः श्वशुरेण ते । उच्चैः खेचरलोकेन कृतः कलकलध्वनिः ॥१०॥ इति श्रत्वा प्रतीहार्या वचः सूर्यपुरोद्भवः । कृतस्मितमुखं तस्थौ स नीलयशसा सह ॥११॥ प्राप्तां घनकृताश्लेषां प्रावृषं विषयप्रियाम् । शुक्लापाङ्गस्वनैहृद्यां सोऽन्वमतां वधूमिव ॥१२॥
परन्तु
अथानन्तर-किसी समय महलके ऊपर बैठे हुए कुमारने लोगोंका बहुत भारी कोलाहल सुनकर पासमें बैठी प्रतीहारीसे पूछा कि ये समस्त लोग किस कारण कोलाहल कर रहे हैं ? कुमारके इस प्रकार कहनेपर अतीत वृत्तान्तको जाननेवाली प्रतीहारीने कहा कि हे देव ! सुनिए, इस पर्वतपर एक शकटामख नामका नगर है उसका स्वामी विद्याधरोंका अधिपति नीलवान् नामका विद्याधर है ॥१-३॥ राजा नीलवान्के नोल नामका पुत्र और नीलांजना नामकी माननीय पुत्री इस प्रकार दो सन्तान हैं। एक बार नील और नीलांजनाके बीच यह बात हुई कि यदि मेरे पूत्र हो । और तम्हारे पत्री हो तो परस्पर गोत्रको प्रीति बनाये रखनेके लिए दोनोंका विवादरहित विवाह होगा ॥४-५।। नीलांजनाको तुम्हारे श्वसुर सिंहदंष्ट्रने विवाहा था और उससे यह नीलयशा नामकी पुत्री हुई थी ॥६॥ कुमार नोलका भी विवाह हुआ और उसके नीलकण्ठ नामका पुत्र हुआ। पूर्व वार्ता के अनुसार नीलने अपने पुत्र नीलकण्ठके लिए सिंहदंष्ट्रसे नीलयशाकी याचना की ॥७॥
दंष्टने अमोघवादी बहस्पति नामक मनिराजके कथनानसार यह कन्या आपके लिए दी है। आप अर्धचक्रवर्तीके यशस्वी पिता हैं ।।८। आज दुष्ट प्रकृतिके धारक पिता-पुत्र-नील और नीलकण्ठने सभाके बीच सिहदंष्ट्र के साथ विवाद ठाना था परन्तु तुम्हारे श्वसुर-सिहदंष्ट्रने उन दोनोंको न्याय मार्गसे जीत लिया इसलिए विद्याधरोंने बहुत भारी कलकल शब्द किया है ॥९-१०।। इस प्रकार प्रतीहारीके वचन सुनकर कुमार वसुदेव मुसकराये और नीलयशाके साथ पहलेको तरह रहने लगे ।।११||
तदनन्तर वर्षा ऋतु आयी, सो कुमार वसुदेवने स्त्रीके समान उसका अनुभव किया क्योंकि जिस प्रकार स्त्री घनकृताश्लेषा-गाढ़ आलिंगनसे युक्त होती है उसी प्रकार वर्षा ऋतु भी घनकृताश्लेषा-मेघकृत आलिंगनसे युक्त थी। जिस प्रकार स्त्री विषय-प्रिया-विषयोंसे प्रिय होती है उसी प्रकार वर्षा ऋतु भी विषय-प्रिया-देशोंके लिए प्रिय थी। और जिस प्रकार स्लो शुक्ला१. सुताः म. । २. पितृपुत्री ख., म. । ३. वसुदेवः । ४. विषया भोग्यवस्तूनि अन्यत्र जनपदाः । ५. मयूरकेकाध्वनिभिः, पक्षे कटाक्षस्वनः ।
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