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हरिवंशपुराणे
राज्ये पुत्रशतं प्राज्ये संस्थाप्य भरतादिकम् । यो मुमुक्षुर्विनिःक्रान्तः सचतुनृ सहस्रकः ॥ ३८ ॥ "यश्चचार चतुर्वेदस्तपो दुश्चरमात्मभूः । धीरो वर्षसहस्रं वै पराजितपरीषहः ॥३१॥ समुत्पादित कैवल्य वेदनेत्रेक्षिताखिलः । धर्मतोर्थेन यश्चक्रे धर्मक्षेत्रं खलोज्झितम् ॥४०॥
द्वौ धर्माश्रम धौं गृहिश्रमणसंश्रयौ । स्वर्गापवर्गसौख्यस्य सिद्धयेऽदर्शयन्मुनिः ॥४१॥ द्वादशाङ्गविकल्पेषु वेदेषु यतिवृत्तिषु । अन्तर्गता गृहस्थानां यथोक्ताचारदर्शिता ॥ ४२ ॥ गुणशिक्षाव्रतस्थानामनेकनियमश्रिताम् । तेन ये दर्शिता वेदा ऋषभप्रभुणार्षकाः ॥ ४३ ॥ तानधीत्य तदुक्तेन विधिना भरतार्चितः । धर्मयज्ञानयष्टाद्ययुगे विप्रगणोऽखिलः ॥ ४४ ॥ अनार्षाणां तु वेदानामुत्पत्तिरभिधीयते । ऐदंयुगीनविप्राणां तापयं यत्र वर्त्तते ॥ ४५ ॥ भूप धारणयुग्मेsभृत्पुरे यो रणभूमिषु । अयोधनतया योधैरयोधन इतीरितः ॥ ४६ ॥ भूषितादित्यवंशस्य सोमवंशतनूद्भवा । दितिस्तस्य महादेवी तृणविन्दोः कनीयसी ॥ ४५ ॥ सायोषिद्गुणमञ्जूषामसूत सुकसां सुताम् । यौवने च पिता तस्याः स्वयंवरमचीकरत् ॥ ४८॥ आगताश्च समाहूताः पृथिव्यां पृथुकीर्त्तयः । स्वयंवरार्थितो भूपाः सादराः सगरादयः ॥ ४९ ॥ सगरस्य प्रतीहारी नाम्ना मन्दोदरी दितेः। गृहं गतान्यदाश्रवादेकान्ते वचनं दितेः ॥ ५० ॥
विन्ध्याचल रूप स्तनोंसे युक्त, विजयार्धरूपी हारसे सुशोभित और सागर रूपी मेखलासे अलंकृत पृथिवीरूपी स्त्रीका उपभोग किया था ||३७|| जिन्होंने अन्तमें विरक्त हो श्रेष्ठ राज्यपर भरतादिक सौ पुत्रोंको आसीन कर चार हजार राजाओंके साथ दीक्षा धारण की थी ||३८|| जो स्वयं प्रतिबुद्ध थे, धोर-वीर थे, परीषहोंके जेता थे और जिन्होंने चार ज्ञानके धारक होकर एक हजार वर्ष तक कठिन तप किया था ||३९|| जिन्होंने उत्पन्न हुए केवलज्ञानरूपी नेत्रके द्वारा समस्त पदार्थों को जान लिया था तथा धर्मरूप तीर्थंके द्वारा जिन्होंने धर्मक्षेत्रको दुष्टोंसे रहित कर दिया था ||४०|| जिन्होंने स्वर्ग और मोक्षसुखकी प्राप्ति के लिए गृहस्थ और मुनियोंसे सम्बन्ध रखनेवाले दो धर्माश्रम दिखलाये थे ||४१ || जिन्होंने मुनिधर्मका वर्णन करनेके लिए द्वादशांगरूप वेदोंका निर्माण किया था तथा उन्हीं वेदोंके अन्तर्गत ( उपामकाध्ययनांग ) गुणव्रत और शिक्षाव्रतोंके धारक एवं अनेक नियमों का पालन करनेवाले गृहस्थोंके भी आचारका वर्णन किया था। उन्हीं भगवान् वृषभदेव के द्वारा उस समय जो वेद दिखाये गये थे वे आपं वेद कहलाते हैं ॥ ४२-४३॥ युगके आदि भरत चक्रवर्तीने जिसका सम्मान किया था ऐसा समस्त ब्राह्मणोंका समूह उन्हीं आप वेदोंका अध्ययन कर उन्हींमें बतायी हुई विधिसे धर्मं यज्ञ करता था || ४४ || अब जिनमें इस युगके ब्राह्मणोंका तात्पर्य है उन अनाषं वेदोंकी उत्पत्ति कही जाती है ॥४५॥
धारण-युग्म नगर में एक राजा रहता था जिसे युद्ध भूमि में अयोध्य होने के कारण योधा लोग अयोधन कहते थे ||४६ || सूर्यवंशको अलंकृत करनेवाले राजा अयोधनकी महारानीका नाम दिति था । यह दिति चन्द्रवंशकी लड़की थी तथा चन्द्रवंशी राजा तृणविन्दुकी छोटी बहन थी ॥४७॥ महारानी दितिने कदाचित् स्त्रियोंके गुणोंकी पिटारीस्वरूप सुलसा नामको कन्याको जन्म दिया। जब वह यौवनवती हुई तब पिताने उसका स्वयंवर करवाया ||४८ || और पृथिवीके यशस्वी राजाओंको बुलवाया जिससे विशाल यशके धारक, स्वयंवर के अभिलाषी एवं आदरसे युक्त सगर आदि राजा वहां आ पहुँचे || ४९||
एक दिन राजा सगरको मन्दोदरी नामकी प्रतीहारी रानी दिति के घर गयी थी, वहाँ उसने एकान्त में दिति यह वचन सुने कि बेटी सुलसा ! तू मुझसे बहुत स्नेह करती है क्योंकि पुत्रांका
१. यश्चत्वारश्चतुर्वेद- म. । २. धर्मं तीर्थं म । ३. -णार्षभाः म । ४. - नयच्छाद्य -म. ।
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